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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये आकाश
प्रशतपादभाष्यम् कारणाभावाच्च नित्यम् । सर्वप्राणिनाञ्च शब्दोपलब्धौ निमित्तं श्रोत्रभावेन । श्रोत्रं पुनःश्रवणविवरसंज्ञको नभोदेशः, शब्दनिमित्तोपभोगप्रापकधर्माधर्मोपनिबद्धः। तस्य च नित्यत्वे सत्युपनिबन्धकवकन्याद्बाधिर्यमिति। और विभाग भी समझना चाहिए । गुणवत्त्व और अनाश्रितत्व ( स्वातन्त्र्य ) इन दो हेतुओं से आकाश में द्रव्यत्व की सिद्धि होती है। चूंकि आकाश का समानजातीय या असमानजातीय कोई भी कारण नहीं है, अतः वह नित्य है । श्रोत्ररूप में परिणत होकर वह सभी प्राणियों के शब्दप्रत्यक्ष का कारण है। श्रवण विवर नाम का आकाश प्रदेश ही श्रोत्रेन्द्रिय है। यह श्रोत्र जीव के शब्दप्रत्यक्षमूलक उपभोग के जनक धर्म और अधर्म के साथ सम्बद्ध है, अतः आकाश रूप होने के कारण नित्य होने पर भी धर्म और अधर्म के अभाव से ही उसमें बहरापन आता है।
न्यायकन्दली तदनुविधानादेकपृथक्त्वमिति । एकत्वानुविधानादेकपृथक्त्वम् । अस्ति चाकाशे भेदप्रतिपादकप्रमाणाभावात् सर्वसिद्धमेकत्वम्, तेन पृथक्त्वमपि सिद्धमित्यर्थः । केचिद्वस्तुनो निजं स्वरूपमेवैकत्वम्, न तु सङ्ख्याविशेष इत्याहुः । तेषामेको घट इति सहप्रयोगानुपपत्तिः पर्यायत्वात् । येऽपि पदार्थानां स्वाभाविकमेकपृथक्त्वमित्याहुः, तेषामपि प्रतियोग्यनुसन्धानरहितस्यैकत्वविकल्पवत् पृथक्त्वविकल्पोऽपि प्राप्नोति, न चैवं स्यात्, अयमस्मात् पृथगिति पृथक्त्वस्य विकल्पनात् । तस्मान्न तयोरेकत्वम्।
आकाश में एकत्व के रहने से यह भी समझते हैं कि उसमें एक पृथक्त्व भी है। अभिप्राय यह है कि आकाश में अनेकत्व का ज्ञापक कोई प्रमाण नहीं है, अतः आकाश में एकत्व फलतः सर्वसिद्ध ही है । एवं एकत्व के रहने से आकाश में एकपृथक्त्व भी है ही। कोई कहते हैं कि (प्र०) द्रव्यों में प्रतीत होनेवाला एकत्व अपने आश्रयीभूत द्रव्य का ही स्वरूप है अतः संख्या नाम का कोई गुण नहीं है । (उ०) किन्तु उनके मत में 'यह एक घट है' इस प्रकार एक वाक्य में एक साथ 'एक' शब्द और 'घट शब्द का प्रयोग अनुपपन्न हो जाएगा। क्योंकि उक्त मत में 'एक' शब्द और 'घट' शब्द दोनों एक ही अर्थ के बोधक होंगे। कोई कहते हैं कि (प.) पृथक्त्व नाम का कोई गुण नहीं है, जिसमें पृथक्त्व की प्रतीति होती है, पृथक्त्व उस आश्रय से अभिन्न है। अतः पृथक्त्व अपने आश्रय का ही त्वरूप है । (उ.) किन्तु पृथक्त्व की प्रतीति उसके प्रति योगो की प्रतीति के साथ ही होती है । प्रतियोगी के ज्ञान से रहित पुरुषों को पृथक्त्व का ज्ञान नहीं होता है, अतः एकत्व के ज्ञान को तरह पृथक्त्व का ज्ञान भी बिना प्रतियोगी के ही होना चाहिए। चूंकि 'इससे यह पृथक् है, इस प्रकार की प्रतीति होती है, अतः पृथक्त्व और उसका आश्रय दोनों एक नहीं हैं।
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