________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
[साधर्मवैधयं
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पात् । तहि मिथ्याप्रत्ययोऽयम् ? को नामाह नेति । भिन्नस्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्येव, स्वरूपग्रहणन्तु न मृषा, स्वरूपस्य यथार्थत्वात् । द्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपकृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः ? नैवम्, सति मुख्येऽध्यारोपस्यासम्भवात् । न चेयं सामान्यादिष्वेव मुख्या, बाधकसम्भवाद् द्रव्यादिषु च तदभावात् ।
बुद्धिलक्षणत्वमिति । बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणाः, विप्रतिपन्नसामान्यादिसद्भावे बुद्धिरेव लक्षणं नान्यत्, द्रव्यादिसद्भावे त्वन्यदपि तत्कायं प्रमाणं स्यादित्यर्थः । कश्चित् पुनरेवमाह-बुद्धया लक्ष्यन्ते प्रतीयन्त इति बुद्धिलक्षणा: । तदयुक्तम्, द्रव्यादेरपि स्वबुद्धिलक्षणत्वान्नेदं वैधर्म्यमुक्तं स्यात् । होता है । इसी आरोप से सामान्यादि पदार्थों में भी एक प्रकार की - सत् है' इस आकार की प्रतीति होती है। (प्र.) तो फिर सामान्यादि में उक्त एक आकार की सत्त्व की प्रतीति भ्रमरूप है ? (उ०) कौन कहता है कि भ्रम रूप नहीं है ? भिन्न स्वभाव की वस्तुओं में एक आकार की प्रतीति अवश्य ही भ्रम है। किन्तु उनके स्वरूपों का ज्ञान यथार्थ ही है, क्योंकि वे उन में ठीक ही हैं । (प्र०) फिर द्रव्यादि तीनों पदार्थों में भी (सामान्यादि की तरह) स्वरूपसत्त्व के आरोप से सत्ता की एक आकार की प्रतीति को भी मिथ्या क्यों नहीं मान लेते ? (उ०) इस लिए कि मुख्य प्रतीति के सम्भव होने पर आरोप मानना अनुचित है । यह भी सम्भव नहीं है कि सामान्यादि में ही सत्त्व को एक आकार की प्रतीति को ही मुख्य मान लें, क्योंकि ऐसा मानने में अनास्था आ जाती है। द्रव्यादि तीनों पदार्थों में सत्त्व की एक आकार की प्रतीति को मुख्य मानने में इस प्रकार की कोई बाधा नहीं है।
'बुद्धिलक्षणत्वम्', "बुद्धिरेव लक्षणं प्रमाणं येषां ते बुद्धिलक्षणा:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार बुद्धि ही जिनका प्रमाण है, वे ही बुद्धि लक्षण कहे जाते हैं । अभिप्राय · यह है कि द्रव्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्ध मत रखनेवालों को द्रव्यादि के कर्यों से भी समझाया जा सकता है । किन्तु सामान्यादि के प्रसङ्ग में विरुद्धमत रखनेवालों को समझाने के लिए बुद्धि ही एक अवलम्ब है। (प्र०) किसी सम्प्रदाय के व्यक्ति 'बुद्धधा लक्ष्यन्ते प्रतीयन्ते इति बुद्धिलक्षणा:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार प्रकृत बुद्धिलक्षण' शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि “जो बुद्धि से ही प्रतीत हों वे ही बुद्धिलक्षण हैं" । (उ०) किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार का बुद्धिलक्षणत्व तो द्रव्यादि में भी है, फिर यह 'बुद्धिलक्षणत्व' रूप सामान्यादि तीन पदार्थों के साधर्म्य को द्रव्यादि पदार्थों का वैधर्म्य कहना सम्भव न होगा।
१. अभिप्राय यह है कि ग्रन्थ के आदि में पदार्थ एवं उनके साधर्म्यवैधयं के निरूपण की प्रतिज्ञा कर चुके हैं । उसके बाद पदार्थ एवं उनके साधयों का विस्तार से निरूपण
For Private And Personal