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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
स्वाश्रयं परित्यज्य गुणस्यागमनमस्ति, न च शङ्खत्तिना तेनान्तराले शब्द आरब्धव्यः, स्पर्शवद्विशेषगुणस्य स्वाश्रयारब्धे द्रव्ये विशेषगुणान्तरारम्भदर्शनात्, शङ्खारब्धस्य च द्रव्यस्य शङ्कश्रोत्रयोरन्तरालेऽनुपलम्भात् । न चाप्राप्तस्य ग्रहणमस्ति, अतिप्रसङ्गात् । तस्माच्छादिगुणत्वे शब्दस्यानुपलब्धिरेव । अस्ति च तदुपलब्धिः, सैव तस्य द्रव्यान्तरगुणत्वं साधयति, यस्मिन्नन्तरालव्यापिनि शब्दस्य शब्दान्तरारम्भक्रमेण श्रोत्रप्रत्यासन्नस्य ग्रहणं स्यात् ।।
आत्मगुणनिषेधार्थमाह-बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वादिति। श्रोत्रं तावद् बाह्येन्द्रियं नियमेन बाह्यार्थप्रकाशकत्वाच्चक्षुर्वत्, तद्ग्राह्यश्च शब्दस्तत्प्रतीतेस्तद्भावभावित्वात् । यस्तु बाह्येन्द्रियाग्राह्यो नासावात्मगुणो यथा रूपादि:, तस्मादयमपि न तद्गुण इत्यर्थः । इतोऽपि शब्दो नात्मगुण आत्मान्तरग्राह्यत्वादनेकप्रतित्तृसाधारणत्वादित्यर्थः । या खलु वीणावेण्वादिजा शब्दव्यक्तिः सन्ततिसे सुन पड़ा है या पश्चिम दिशा से ? इस सन्देह को उपपत्ति नहीं होगी)। गुण अपने आभय को छोड़कर जा भी नहीं सकता है। शङ्ख का शब्द श्रोत्र और अपने बीच के शब्दों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि स्पर्श से युक्त द्रव्यों के विशेष गुणों का यह स्वभाव है कि अपने आश्रय से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यों के विशेष गुणों का ही वह उत्पादन करें। शङ्ख से उत्पन्न किसी दूसरे द्रव्य की उपलब्धि शङ्ख और श्रोत्र के बीच में नहीं होती है। तथा इन्द्रियों से असम्बद्ध द्रव्यों का प्रत्यक्ष नहीं होता है, ऐसा मान लेने से चक्षुरादि से रसादि की अथवा व्यवहित या दूरस्थ घटादि के प्रत्यक्षत्व की आपत्ति होगी। तस्मात् शब्द अगर स्पर्श से युक्त द्रव्यों का विशेष गुण हो तो उसकी उपलब्धि ही नहीं होगी। लेकिन उसकी उपलब्धि होती है । यह उपलब्धि ही यह सिद्ध करती है कि शब्द ऐसे द्रव्य का विशेष गुण है जो शङ्खादि द्रव्य एवं श्रोत्ररूप इन्द्रिय के बीच में रहता है। जिससे कि एक शब्द से दूसरा शब्द दूसरे से तीसरा इस प्रकार शब्द की धारा उत्पन्न होकर उस धारा के श्रोत्र में उत्पन्न शब्द श्रोत्र के साथ सम्बद्ध होकर प्रत्यक्ष का विषय होता है।
'शब्द आत्मा का गुण नहीं है' इसका साधक हेतु 'बाह्येन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इस वाक्य से देते हैं। अभिप्राय यह है कि श्रोत्र बाह्येन्द्रिय है, क्योंकि चक्षुरादि बाह्य इन्द्रियों की तरह वह केवल बाह्य वस्तु का ही प्रकाशक है। शब्द का प्रत्यक्ष श्रोत्र से ही होता है, क्योंकि शब्द प्रत्यक्ष की सत्ता श्रोत्र के अधीन है। जिस गुण का ग्रहण बाह्य इन्द्रिय से होता है वह कभी आत्मा का गुण नहीं हो सकता जैसे कि रूप, तस्मात् शब्द आत्मा का गुण नहीं है। 'आत्मान्त रग्राह्यत्व' हेतु से भी समझते हैं कि शब्द आत्मा का गुण नहीं है। 'आत्मान्तरग्राह्यत्व' शब्द का अर्थ है अनेक
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