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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये पृथिवी
न्यायकन्दली द्रवत्वमस्तीत्युक्तम् । मधूच्छिष्टशब्देन सिक्थस्याभिधानम् ।
उत्तरकर्मवचनात् संस्कार इति । "नोदनादाद्यमिषोः कर्म, तत्कर्मकारिताच्च संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च" ( ५ । १ । १७) इति सूत्रकारेण इषौ पार्थिवद्रव्ये कर्महेतुः संस्कार इति दर्शयता पृथिव्यां वेगोऽस्तीति ज्ञापितम्, अविद्यमानस्याहेतुत्वात् । यथा चैक एव संस्कार आपतनात् तथोपपादयिष्यामः ।
क्षितावेव गन्धः । अयमस्यार्थः--केवल एवायमसाधारणधर्म इति । सुगन्धि सलिलम्, सुगन्धिः समीरण इति प्रत्ययाद् द्रव्यान्तरेऽपि गन्धोऽस्तीति चेन्न, पार्थिव द्रव्यसमवायेन तद्गुणोपलब्धः । कथमेष निश्चय इति चेत् ? तदभावेऽनुपलम्भात्। में समान रूप से है । 'मधूच्छिष्ट' शब्द का अर्थ है 'सिक्थ' अर्थात् मोम । इस सूत्र से महर्षि कणाद ने कहा है कि पृथिवी में नैमित्तिक द्रवत्व है।
'उत्तरकर्मवचनात् संस्कारः' अर्थात् 'नोदनादाद्यमिषोः कर्म, तत्कर्मकारिताच्च संस्कारात् तथोत्तरमुत्तरञ्च' (५-१-१७) । (अर्थात् तीर की पहिली क्रिया नोदन से होती है, उस क्रिया से उत्पन्न संस्कारों के द्वारा शर के आगे आगे की क्रियायें होती हैं) 'शर रूप पार्थिव द्रव्य में कर्म का कारण संस्कार है' इस उक्ति के द्वारा महर्षि कणाद ने यह सूचित किया है कि 'पृथिवी में वेग है', क्योंकि किसी आश्रय में अविद्यमान कोई भी वस्तु उस आश्रय में कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकती। पतन पर्यन्त एक ही वेगाख्य संस्कार जिस प्रकार से रहता है, उसका प्रतिपादन हम आगे करेंगे ।
'क्षितावेव गन्धः' इस वाक्य का अर्थ है कि गन्ध दूसरे की अपेक्षा न करते हुए केवल पृथिवी का असाधारण धर्म है । (प्र०) 'जल में सुगन्धि है, वायु में सुगन्धि है' इत्यादि प्रतीतियों से और द्रव्यों में भी गन्ध सूचित होता है ? (उ०) पार्थिव द्रव्य के (संयुक्तसमवेत) समवाय से ही जलादि द्रव्यों में गन्ध की उपलब्धि होती है। (प्र.) यह कैसे समझते हैं ? (उ०) क्योंकि पार्थिव द्रव्य का सम्बन्ध न रहने से जलादि में गन्ध की उपलब्धि नहीं होती है।
मानना पड़ेगा । तब 'प्रतियत्न' पद को आवश्यकता नहीं रह जाती है। इसी अभिप्राय से वैशेषिक सूत्र के सर्वमान्य वृत्तिकार श्रीशङ्कर मिश्र ने भी इस सूत्र की व्याख्या की है (वै० उपस्कार पृ० १९७ पं० २३ गुजराती प्रे० सं०)। किरणावली में मुद्रित सत्र. पाठ में भी 'प्रतियत्न' शब्द नहीं है। (बनारस सं० सिरीज में मुद्रित किरणावली सूत्र पाठ पृ० ६ पं० १७) । अतः यहाँ पर 'संयोगप्रतियत्नाभावे गुरुत्वात्पतनम्' यह पाठ न रखकर 'संयोगाभावे गुरुत्वात्पतनम्' यही पाठ रखना उचित समझा मया ।
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