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[द्रव्ये तेज:
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
चलनेऽपि तयोर्युतसिद्धयभावात् । पृथगाश्रयायित्वं चावयवावयविनोभिन्नत्वेऽपि नास्तीति न युतसिद्धता। यदप्यन्यद् बाधकमुक्तम्, एकावयवावरणे तत्समवेतस्यावयविनो न ग्रहणम्, अनावृतावयवग्रहणे च ग्रहणमित्येकस्य युगपद् ग्रहणमग्रहणञ्च प्राप्नुत इति । तदप्यसारम् एकावयवावरणेऽवयव्यावरणस्याभावात् । स होकोऽनेकेषु वाऽवयविषु वर्तमानः कतिपयावयवावरणेऽप्यनावृतेतरकतिपयावयवग्रहणेन गृह्यते, तस्य सर्वत्राभिन्नत्वात् । यत्तु बहुतरावयवग्रहणवत् स्थूलप्रतीतिर्न भवति, तद्भूयोऽवयवप्रचयग्रहणस्य परिमाणप्रकर्षप्रतीतिहेतोरभावात् । यत्र तु भूयसामवयवानामावरणमल्पतरावयवग्रहणञ्च तत्रावयविनो न ग्रहणम्, यथा जलनिमग्नस्य शिरोमात्रदर्शनात् । एकस्मिन्नवयवे रक्ते तद्देशोऽवयवी रक्तोऽवयवान्तरे चारक्त इत्येकस्य रक्तारक्तत्वप्रसङ्ग इत्यचले, क्योंकि द्रव्य के चलने पर भी गुण नहीं चलते, किन्तु वे दोनों 'अयुतसिद्ध' हैं । अवयव और अवयवी इन दोनों में परस्पर भेद रहने पर भी एक को छोड़कर न दूसरा कहीं रहता है, न एक से असम्बद्ध एक-दूसरे में कोई रहता है। अतः इन दोनों में यतसिद्धि की आपत्ति नहीं है। (अवयवों से भिन्न अवयवी के मानने में ) आपने जो दूसरा बाधक कहा है कि (प्र.) जहाँ एक अवयवी के कुछ अवयव किसी दूसरी वस्तु से ढंके हुये हैं, और कुछ अवयव बिना ढंके हुये हैं, वहाँ ढंके हुए अवयवों में समवायसम्बन्ध से रहनेवाला अवयवी का प्रत्यक्ष नहीं होता है, और बिना ढंके हुए अवयवों में समवायसम्बन्ध से रहनेवाले अवयवों का ग्रहण होता है, दोनों प्रकार के अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक ही है। तस्मात् अवयवों से भिन्न एक अवयवी के मानने में एक ही वस्तु में एक ही समय में ग्रहणत्व और अग्रहणत्व रूप विरुद्ध दो धर्मों का समावेश मानना पड़ेगा। ( उ०) इसमें भी कुछ सार नहीं है, क्योंकि एक या कुछ अवयवों के ढंके जाने पर भी अवयवी नहीं ढंकता। यह अवयवी अनेक अवयवों में रहने के कारण कुछ अवयवों के ढंके रहने पर भी बिना ढंके हुए अवयवों के ग्रहण से गृहीत होता है, क्योंकि सभी अवयवों में अवयवी तो एक ही है । यह ठीक है कि कुछ अवयवों के ग्रहण से जो अवयवी का ग्रहण होता है, वह सभी अवयवों के ग्रहण से गृहीत होनेवाले अवयवी की प्रतीति की तरह 'स्थूल' विषयक नहीं होता। उसका कारण यह है कि 'परिमाणप्रकर्ष' रूप 'स्थूलता' की प्रतीति के कारण बहुत से अवयवों की प्रतीति वहाँ नहीं है । जिस अवयवी के अधिक अवयव ढके रहते हैं और कुछ ही अवयव बिना ढंके हुए रहते हैं, उस अवयवी का प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे कि पानी में डुबे हुए व्यक्ति का केवल शिर देखने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता। यह जो दुसरी आपत्ति ( अवयवी को अवयवों से अतिरिक्त मानने में बौद्ध लोग) देते हैं कि (प्र.) किसी अवयवी का एक अवयव रक्त रहे और दूसरा रक्त न रहे इनमें
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