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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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१२३
कथयति - ब्राह्मण
अस्माकं
पश्चादुक्तमपि संहारं प्रथमं पश्वदश निमेषा: काष्ठा 1 त्रिशतिः पश्वदश कला नाडिका । त्रिंशत्कलो मुहूर्त्तः । त्रिशता पञ्चदशाहोरात्राः पक्षः । द्वौ पक्षौ मासः । द्वौ मासावृतुः द्वादश मासाः संवत्सरः । ऋतुत्रयेणोत्तरायणम्, ऋतुत्रयेण च दक्षिणायनम् । उत्तरायणश्व देवानां दिनम्, दक्षिणायनश्च देवानां रात्रिः ।
। षड्ऋतवो
मानेनेति ।
काष्ठाः कला ।
मुहूर्त्तेरहोरात्रः ।
जिस किसी प्रकार पदार्थों का प्रतिपादन मात्र ही इष्ट है. अतः पीछे कहे हुए भी संहार को "ब्राह्मण मानेन' इत्यादि से पहले कहते हैं । हम लोगों के १५ निमेषों की एक काष्ठा होती है । ३० काष्ठाओं की एक कला और १५ कलाओं को एक नाड़िका होती है । ३० कलाओं का एक मुहूर्त होता है । ३० मुहूर्तों से एक दिन और एक रात होती है । १५ अहोरात्रों का एक पक्ष होता है। दो पक्षों का एक मास और दो मासों की एक ऋतु होती है। छः ऋतुओं एवं बारह मासों का एक वर्ष होता है। मकर राशि में जब सूर्य आते हैं तब से लेकर मिथुन राशि में उनकी स्थिति पर्यन्त के शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म इन तीन ऋतुओं का एक उत्तरायण होता है । एवं कर्क राशि में सूर्य की स्थिति से लेकर धनु राशि में उनकी स्थिति पर्यन्त के वर्षा, शरद् और हेमन्त इन तीन ऋतुओं का दक्षिणायन होता है । उत्तरायण देवताओं का दिन है,
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आलम्भन युक्त है, क्योंकि त्रित्व संख्या के ग्रहण से ही शास्त्रकृत्य सम्पन्न हो जाता है । एवं तीन संख्या से अधिक संख्या को ग्रहण करने पर भी त्रित्व को छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि चतुष्ट्वादि के अन्दर त्रित्व अवश्य ही है। जो कोई त्रित्व को ग्रहण करेगा वह चतुष्ट्वादि को छोड़ सकता है, क्योंकि चतुष्ट्वादित्रित्व के अन्दर नहीं है, अतः उनके लिए त्रित्व को छोड़ना असम्भव है । त्रित्व सब से पहिले उपस्थित है, एवं उसके ग्रहण में लाघव भी है । तस्मात् त्रित्व संख्या के ग्रहण से ही शास्त्रकृत्य सम्पन्न हो जाता है, फिर उससे अधिक कपिञ्जल के वध से तो प्रत्यवाय ही होगा। तस्मात् विना विशेषण के बहुवचन का अर्थ त्रित्व ही है । ( मीमांसासूत्र अ. ११ पा. १ अधि. ८ )
१. प्रतिज्ञावाक्य के विरुद्ध इस उलटफेर को किरणावली में इस प्रकार सुलझाया गया है कि सृष्टि और संहार इन दोनों में पहिले कौन ? इस विप्रतिपांत में वैशेषिकों का सिद्धान्त है कि कोई भी पहिले नहीं, क्योंकि संसार अनादि और अनन्त है । प्रत्येक सृष्टि के पहिले अनन्त संहार बीत चुके हैं, एवं हर एक संहार के पहिले अनन्त सृष्टियाँ बीत चुकी रहती हैं । इस विषय को सूचना देने के लिए ही प्रतिज्ञावाक्य में पीछे कथित भी संहार का 'ब्राह्मण मानेन' इत्यादि से पहिले प्रतिपादन करते हैं। देखिये किरणावली - ( पृ० ८६ पं० १६ और पृ० ६० पं० ३ ) ।