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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये सृष्टिसंहार
प्रशस्तपादभाष्यम् शरीरेन्द्रियमहाभूतोपनिबन्धकानां सर्वात्मगतानामदृष्टानां वृत्तिनिरोघे की इच्छा होती है। उसके बाद ही शरीर, इन्द्रिय, एवं और सभी महाभूतों के उत्पादक सभी आत्माओं के सभी अदृष्टों के कार्यों के उत्पन्न करने की शक्ति
न्यायकन्दली तथाभूताहोरात्रशतत्रयेण षष्टयधिकेन वर्षम् । द्वादशसहस्रेश्च वर्षेश्चतुर्युगम् । चतुर्युगसहस्रेण ब्रह्मणो दिनमेकम् ।
इत्यनेन मानेन वर्षशतस्यान्तेऽवसाने, वर्तमानस्य ब्रह्मणोऽपवर्गकाले मुक्तिकाले, संसारे नानास्थानेषु भूयो भूयः शरीरादिपरिग्रहेण, खिन्नानां गर्भवासादिविविधदुःखेन दुःखितानां प्राणिनाम्, निशि विश्रामार्थं कियत्कालं दुःखोपशमार्थम्, सकलभुवनपतेः सर्वत्राव्याहतप्रभावस्य, महेश्वरस्य सञ्जिहीर्षा संहारेच्छा भवति । तत्समानकालं तदनन्तरं शरीरेन्द्रियमहाभूतोपनिबन्धकानां शरीरेन्द्रियमहाभूतारम्भकाणां सर्वात्मगतानां सर्वेष्वात्मसु समवेतानामदृष्टानां वृत्तिनिरोधः शक्तिप्रतिबन्धः स्यात् । तस्मिन् सत्यनागतानां शरीरेन्द्रियमहाभूतानामनुत्पत्तिः । उत्पन्नानाञ्च विनाशार्थं महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगेभ्यः कर्माणि जायन्ते । महेश्वरेच्छा सजिहीर्षालक्षणा। अण्विति परमाणुपरिग्रहः। महेश्वरस्येच्छा चात्माणुएवं दक्षिणायन उनकी रात है। इस प्रकार के ३६. अहोरात्रों से उनका एक वर्ष होता है। इस वर्ष से बारह हजार ( १२०००) वर्षों का एक चतुर्युग होता है । एक हजार (२०००) चतुर्युग से ब्रह्मा का एक दिन होता है । उतने की ही एक रात होती है। इसी अहोरात्र से ३६० दिनों का एक वर्ष और इसी वर्ष से सो वर्षों की आयु ब्रह्मा की है।
इसी ब्राह्म मान से सौ वर्ष बीत जाने पर ब्रह्मा के अपवर्ग के समय में संसार में अनेक स्थानों में बार-बार शरीरादि धारण से खिन्न' गभवासादि अनेक दुःखों से दुःखी जीवों को रात में विश्राम देने के लिए, अर्थात् कुछ समय तक उक्त दुःखों से उन्हें छुटकारा देने के लिए 'सकलभुवनपति' सभी स्थानों में अबाधित शक्तिवाले महेश्वर को 'सजिहीर्षा' अर्थात् नाश करने की इच्छा होती है। उसी के समान काल में अर्थात् उसके बाद शरीर, इन्द्रिय और महाभूतों के 'उपनिबन्धक' अर्थात् उत्पादक सभी जीवों में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले अदृष्टों का 'वृत्तिनिरोध' अर्थात् कार्यों को उत्पन्न करने का सामर्थ्य प्रतिरुद्ध हो जाता है। सामर्थ्य के उक्त प्रतिरोध से भविष्यत् शरीर, इन्द्रिय और अन्य महाभूतों की उत्पत्ति रुक जाती है, एवं उत्पन्न शरीरादि के विनाश के लिए महेश्वर की इच्छा, आत्मा एवं अणुओं के संयोग इन सबों से क्रियाओं की उत्पत्ति होती है। महेश्वर की यह इच्छा 'सञ्जिहीर्षा' रूप है। कथित 'अणु'
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