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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१२५ प्रशस्तपादभाष्यम् सति महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगजकर्मभ्यः शरीररेन्द्रियकारणाणुविभागेभ्यस्तत्संयोगनिवृत्तौ तेषामापरमाण्वन्तो विनाशः। तथा पृथिव्युदकज्वलनकुण्ठित हो जाती है। उसके बाद महेश्वर की इच्छा, और आत्मा एवं परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न क्रिया के द्वारा शरीर और इन्द्रिय के उत्पादक परमाणुओं में विभाग उत्पन्न होते हैं। उन विभागों से (शरीर और इन्द्रिय के आरम्भक परमाणुओं के) संयोगों का नाश होता है। फिर (शरीरादि) कार्य द्रव्यों का परमाणु पर्यन्त विनाश हो जाता है। इसी प्रकार पृथिवी, जल, तेज और वायु इनमें आगे-आगे के रहते
न्यायकन्दली संयोगाश्चेति विग्रहः । तेभ्यो जातानि तेभ्यो महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगजकर्मभ्यः । शरीराणामिन्द्रियाणां ये पारम्पर्येण कारणभूता अणवस्तेषु विभागा भवन्ति । विभागेभ्यस्तेषामणूनां संयोगनिवृत्तिः। संयोगनिवृत्तौ सत्यां तेषामापरमाण्वन्तो विनाशः । तेषां शरीरेन्द्रियाणां द्वचणुकादिविनाशप्रक्रमेण तावद्विनाशो यावत्परमाणुरिति ।
प्रजानामकाण्डे संहरन्नयमकारुणिको यत्किञ्चनकारी च स्यादिति यत्केनचिदुक्तं तत्रेयं प्रतिक्रिया-प्राणिनां निशि विश्रामार्थमिति । यदप्येतदुक्तम्-"अनन्तानामात्मनामनन्तेष्वदष्टेषु क्रमेण परिपच्यमानेषु केचिददृष्टक्षयाद् भोगावुपरमन्ते भुज्यन्ते च केचित् । अपरे तु भोगाभिमुखा शब्द से परमाणु समझना चाहिए । 'महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगेभ्यः' इस समस्त वाक्य के विग्रह का यह स्वरूप है कि "महेश्वरस्येच्छा महेश्वरेच्छा, महेश्वरेच्छा चात्माणुसंयोगाश्च महेश्वरस्येच्छात्माणुसंयोगाः, तेभ्यो जातानि कर्माणि महेश्वरेच्छात्माणुसंयोगकर्माणि, तेभ्यो महेश्वरस्येच्छात्माणुसंयोगजकम्मभ्यः" अर्थात् महेश्वर की इच्छा एवं आत्मा और परमाणुओं के संयोग इन दोनों से उत्पन्न कर्मों के द्वारा शरीर और इन्द्रियों के कारण अणुओं में परस्पर विभाग उत्पन्न होते हैं। इन विभागों से परमाणुओ के (द्वयणुका. रम्भक) संयोग का नाश होता है । संयोग के नाश से शरीर और इन्द्रिय का 'आपरमाण्वन्त' विनाश हो जाता है । अर्थात् शरीरादिनाश की यह क्रिया द्वयणुक नाश पर्यन्त चलती है ।
प्रजा के इस अकारण विनाश से कोई-कोई परमेश्वर में अकरुणा और स्वेच्छाचार का दोष लगाते हैं, उन्हीं को समझाने के लिए 'प्राणिनां निशि विश्रामार्थम्' यह वाक्य है। किसी की आपत्ति थी कि संहार का उक्त क्रम ठीक नहीं है. क्योंकि जीव अनन्त है, प्रत्येक जीव में अदृष्ट भी अनन्त हैं। वे सभी अदृष्ट क्रमशः ही भोगों को उत्पन्न करेंगे । अतः कोई जीव अष्टनाश के कारण अगर भोग से निवृत्त होगा (अथवा एक ही जीव एक अदृष्ट के भोग से निरस्त होगा ), कोई जीव ( अथवा वही जीव ) वर्तमान
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