________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
१३६ न्यायकन्दली प्रसङ्गात्, किन्तु परिदृष्टसामर्थ्यकारकप्रयोजकत्वम्, तस्मिन् सति कार्योत्पत्तेः । तच्चाशरीरस्यापि निर्वहति यथा स्वशरीरप्रेरणायामात्मनः । अस्ति तत्राप्यस्य स्वकर्मोपाजितं तदेव शरीरमिति चेत् ? सत्यमस्ति, परं प्रेरणोपायो न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । प्रेय॑तयाऽस्तीति चेत् ? ईश्वरस्यापि प्रेर्यः परमाणुरस्ति । ननु स्वशरीरे प्रेरणाया इच्छाप्रयत्नाभ्यामुत्पत्तेरिच्छाप्रयत्नयोश्च सति शरीरे भावादसत्यभावाद् अस्ति तस्य स्वप्रेरणायामिच्छाप्रयत्नजननद्वारेणोपायत्वमिति चेन्न, तस्येच्छाप्रयत्नयोरुपजननं प्रत्येव कारकत्वात्, लब्धास्मकयोरिच्छाप्रयत्नयोः प्रेरणाकरणकाले तु तदनुपायभूतमेव शरीरं कर्मत्वादिति व्यभिचारः, अनपेक्षितशरीरव्यापारस्येच्छाप्रयत्नमात्रसचिवस्यैव चेतनस्य कदाचिदचेतनव्यापार प्रति सामर्थ्यदर्शनात्, बुद्धिमदव्यभिचारि तु कार्य्यत्वमितीश्वरसिद्धिः । इच्छाप्रयत्नोत्पत्तावपि शरीरमपेक्षणीयमिति चेत् ? अपेक्षतां
हो गया है, उन्हे उचित रूप से परिचालित करना ही कर्तृत्व है ? अगर शरीर सम्बन्ध को ही कर्तृत्व मानें तो फिर सोये हुए व्यक्ति में एवं कार्यों से उदासीन व्यक्ति में भी कर्तृत्व मानना पड़ेगा। अतः उक्त प्रकार के कारणों को परिचालित करना ही कर्तृत्व है, क्योंकि उचित रूप से उन्हें परिचालित होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यह दूसरे प्रकार का कर्तृत्व शरीर सम्बन्ध के बिना भी सम्भव है, जैसे कि अपने शरीर के लिए जीव का । (प्र०) यहाँ भी अपने पूर्व कर्मों से उपाजित उसी शरीर का सम्बन्ध जीव को अपने शरीर को प्रेरित करने में सहायक है ? ( उ०) यह ठीक है कि जीव में शरीर का सम्बन्ध है, किन्तु अपने शरीर की क्रिया से अपने शरीर में प्रेरणा नही हो सकती। ( प्र०) फिर भी यहाँ प्रेरणा का आश्रय तो है ? ( उ० ) ईश्वर की प्रेरणा के लिए भी परमाणु रूप आश्रय तो है ही। (प्र०) इच्छा और प्रयत्न से अपने शरीर में प्रेरणा उत्पन्न होती है । इन दोनों में भी शरीर अपेक्षित है ही। इस प्रकार अपने शरीर की प्रेरणा में भी अपने शरीर की अपेक्षा होती है। ( उ० ) शरीर केवल इच्छा और प्रयत्न का ही कारण है, अपने कारणों से उत्पन्न इच्छा एवं प्रयत्न इन दोनों से प्रेरणा की उत्पत्ति होती है। प्रेरणा में शरीर कारण नहीं है, क्योंकि शरीर प्रेरणा रूप क्रिया का कर्म है। इस प्रकार यह नियम हो गलत हो जाता है कि कर्तृत्व शरीर युक्त द्रव्यों में ही रहता है, क्योंकि शरीरव्यापार की अपेक्षा न रखते हुए भी केवल इच्छा और प्रयत्न की सहायता से ही चेतन में जड़ वस्तुओं को व्याप्त करने का सामर्थ्य कहीं कहीं देखा जाता है। कार्यत्व और बुद्धिमत्कर्तृ जन्यत्व दोनों अव्यभिचारी हैं, अत: उक्त अनुमान से ईश्वर की सिद्धि होती है । (प्र. ) ( महाभूतादि सृष्टि के प्रयोजक
For Private And Personal