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[ध्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
त्पत्त्यनुरोधेन सर्वेषामविरोधे प्रत्येकमनीश्वरत्वम्। तदेवं कार्यविशेषेण सिद्धस्य कर्तृ विशेषस्य सर्वज्ञत्वान्न कुत्रचिद् वस्तुनि विशेषानुपलम्भः। अतो न तन्निबन्धनं मिथ्याज्ञानम्, मिथ्याज्ञानाभावे च न तन्मूलौ रागद्वेषौ, तयोरभावान्न तत्पूविका प्रवृत्तिः, प्रवृत्त्यभावे च न तत्साध्यौ धधिम्मौ , तयोरभावात् तज्जयोरपि सुखदु:खयोरभावः, सर्वदैव चानुभवसद्भावात् स्मृतिसंस्कारावपि नासाते इत्यष्टगुणाधिकरणो भगवानीश्वर इति केचित् । अन्ये तु बुद्धिरेव तस्याव्याहता क्रियाशक्तिरित्येवं वदन्त इच्छाप्रयत्नावप्यनङ्गीकुर्वाणाः षड्गुणाधिकरणोऽयमित्याहुः। स कि बद्धो मुक्तो वा ? न तावद् बद्धः, बन्धनसमाज्ञातस्य बन्धहेतोः क्लेशादेरसम्भवात् । मुक्तोऽपि न भवति, बन्धविच्छेदपर्यायत्वान्मुक्तेः । नित्यमुक्तस्तु स्यात्, यदाह तत्रभवान् पतञ्जलि:--"क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वरः" इति ।
भी प्रवृत्ति माने तो फिर वही ईश्वरपद के मुख्यार्थ होंगे, और बाकी सर्वज्ञ ईश्वर न कहला सकेंगे। अगर कार्यसम्पादन के अनुरोध से अन्य विषयों में मतभेद रहते हुए भी मठ की परिषद् के सभासदों की तरह सृष्टिरूप एक कार्य में सभी ईश्वरों का एक मत मानें तो फिर प्रत्येक ईश्वर में अनीश्वरता की आपत्ति होगी। तस्मात् अन्य सभी कार्यों से विलक्षण कार्य द्वारा सिद्ध अन्य सभी कर्ताओं से विशिष्ट सृष्टिरूप कार्य का ईश्वररूप कर्ता एक ही है। चूंकि सर्वज्ञ हैं, किसी भी विषय का कोई भी विशेष उनको अज्ञात नहीं है, अतः विषयों के विशेष के अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला मिथ्याज्ञान भी उनमें नहीं है। सुतरां मिथ्याज्ञानमूलक राग और द्वेष भी उनमें नहीं है। इसी हेतु से राग और द्वेष से होनेवाली प्रवृत्तियाँ भी उनमें नहीं हैं। फिर प्रवृत्ति, धर्म और अधर्म की उनमें सत्ता कैसी ? धर्म और अधर्म के न रहने से उनमें सुख एवं दुःख भी नहीं है। सर्वदा सभी विषयों के अनुभव के ही रहने के कारण उनमें स्मृति और संस्कार भी नहीं हैं। इस प्रकार किसी का मत है कि भगवान् परमेश्वर संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग. ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न इन आठ गुणों से युक्त हैं। किसी विषय में व्याहत न होने वाला ज्ञान ही उनकी क्रियाशक्ति है। इस प्रकार उनमें इच्छा और प्रयत्न को भी अस्वीकार करते हुए कोई उन्हें छः गुणों का ही आधार मानते हैं। वे बद्ध हैं या मुक्त ? बद्ध तो वे नहीं हैं, क्योंकि बन्धन के कारण क्लेशकर्मादि उनमें नहीं हैं। वे मुक्त भी नहीं हो सकते, क्योंकि 'मुक्ति' और 'बन्धविच्छेद' दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। नित्यमुक्त वे हो सकते हैं, जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने 'क्लेशकर्मविपाकाशयैः' इत्यादि सूत्र से कहा है |
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