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प्रकरणम् ]
१४१
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
वृत्तयो न निरुध्यन्त इति चेत् ? कुतोऽयं विशेष: ? इन्द्रियप्रत्यासत्तिविशेषाद् यद्येवम्, इन्द्रियाधीनश्चैतन्यस्य विषयेषु वृत्तिलाभो न सन्निधिमात्रनिबन्धनः, सत्यपि व्यापकत्वे सर्वार्थेषु वृत्त्यभावादिन्द्रियंवैयर्थ्यप्रसङ्गाच्च ( इति ) साधूक्तमशरीरिणामात्मनां न विषयावबोध इति ।
तथा चैके वदन्ति-"पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूस्तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्" इति । अनवबोधे च तेषां नाधिष्ठातार इति तेभ्यः परः सर्वार्थदर्शिसहजज्ञानमयः कर्तृस्वभावः कोऽप्यधिष्ठाता कल्पनीयः, चेतनमधिष्ठातारमन्तरेणाचेतनानां प्रवृत्त्यभावात् ।
स किमेकोऽनेको वा ? एक इति वदामः । बहूनामसर्वज्ञत्वेऽस्मदादिवद. सामर्थ्यात्, सर्वज्ञत्वे त्वेकस्यैव सामर्थ्यादपरेषामनुपयोगात् । न च समप्रधानानां भूयसां सर्वदैकमत्ये हेतुरस्तीति कदाचिदनुत्पत्तिरपि कार्य्यस्य स्यात्, एकाभिप्रायानुरोधेन सर्वेषां प्रवृत्तावेकस्येश्वरत्वं नापरेषाम्, मठपरिषदामिव कार्योविशेष में क्या युक्ति है ? अगर इन्द्रिय सम्बन्ध रूप विशेष से ऐसा होता है ? (उ०) तो फिर विषय केवल जीवों के समीप रहने के कारण ही उसके सहज चैतन्य के द्वारा प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि व्यापक होने पर भी जीवों को सभी विषयों का ज्ञान नहीं होता है ! अगर जीवों में इन्द्रियों से निरपेक्ष भी ज्ञान की सत्ता रहे तो किर इन्द्रियों की रचना ही व्यर्थ हो जाएगी, अतः मैंने पहिले जो कहा है कि 'जीवों को बिना शरीर के विषयों का ज्ञान नहीं होता है' वह ठीक है।
'पराञ्चि खानि' इत्यादि श्रुतियों का अवलम्बन करते हुए कोई कहते हैं कि सभी विषयों का ज्ञान जीवों को नहीं है। सभी विषयों के ज्ञान के बिना सृष्टि जैसा कार्य सम्भव नहीं है। सृष्टि रचना के लिए जीवों से भिन्न सहजज्ञान से युक्त कर्तृत्वस्वभाववाले किसी अधिष्ठाता की कल्पना करनी होगी, क्योंकि जड़ वस्तुओं की प्रवृत्ति चेतन अधिष्ठाता के बिना सम्भव ही नहीं है, अतः ईश्वररूप अधिष्ठाता अवश्य है।
किन्तु वह एक हैं या अनेक ? इस प्रसङ्ग में हम लोगों का कहना है कि वह एक ही है, क्योंकि अगर ईश्वर अनेक हों एवं सर्वज्ञ हों तो फिर हमलोगों की तरह ही सृष्टिकार्य में असमर्थ होंगे। अगर ईश्वर को अनेक मानकर सभी को सर्वज्ञ मानें, तो फिर एक ही ईश्वर के सामर्थ्य से सृष्टि कार्य की उत्पत्ति हो जाएगी, अन्य सभी ईश्वरों के सामर्थ्य व्यर्थ जाएंगे। एवं एक ही प्रकार के प्राधान्य से युक्त अनेक व्यक्तियों में सर्वदा ऐकमत्य भी नहीं रहता है। अगर एक ही ईश्वर के अभिप्राय से अन्य ईश्वरों की
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