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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली यत्र तयोरागन्तुकत्वम्, यत्र पुनरिमौ स्वाभाविकावासाते तत्रास्यापेक्षणं व्यर्थम् । न च बुद्धीच्छाप्रयत्नानां नित्यत्वे कश्चिद् विरोधः । दृष्टा हि रूपादीनां गुणानामाश्रयभेदेन द्वयी गतिः-नित्यतानित्यता च । तथा बुद्धयादीनामपि भविष्यतीति । सेयमीश्वरवादे वादिप्रतिवादिनोः पराकाष्ठा । अतः परं प्रपञ्चः।
आत्माधिष्ठिताः परमाणवः प्रतिष्यन्त इति चेन्न, तेषां स्वकर्मोपाजितेन्द्रियगणाधीनसंविदां शरीरोत्पत्तेः (विना) सर्वविषयावबोधविरहात् । अस्त्यात्मनामपि सर्वविषयव्यापि सहजचैतन्यमिति चेन्न, सहजं शरीरसम्बन्धभाजां तत् केन विप्लुतं येनेदं सर्वत्रापूर्ववदवभासयति। शरीरावरणतिरोधानात् तदात्मन्येव समाधीयते, न बहिर्मुखं भवतीति चेत् ? व्यापकत्वेन तस्य विषयसम्बन्धानुच्छेदेन नित्यत्वेन च विषयप्रकाशस्वभावस्यानिवृत्ती का तिरोधानवाचोयुक्तिः ? वत्तिप्रतिबन्धश्चैतन्यतिरोधानमिति चेत् ? कथं तर्हि शरीरिणां विषयग्रहणम् ? क्वचिदस्य ईश्वरीय ) इच्छा और प्रयत्न के लिए भी शरीर को आवश्यकता होगी ? ( उ०% इच्छा और प्रयत्न जहाँ आगन्तुक गुण हैं, वहाँ शरीर को आवश्यकता भले ही हो, जहाँ ये दोनों स्वाभाविक गुण हैं, वहाँ शरीर की अपेक्षा व्यर्थ है। बुद्धि, इच्छा और प्रयत्न इन सबों का नित्यत्व भी युक्ति विरुद्ध नहीं है, क्योंकि आश्रय के भेद से रूपादि गुणों की नित्यत्व और अनित्यत्व दोनों प्रकार की गति देखी जाती है। अतः बुद्धयादि भी जीव और ईश्वर रूप आश्रयों के भेद से नित्य और अनित्य दोनों प्रकार के होंगे। ईश्वर को माननेवाले और न माननेवाले दोनों की इतनी ही युक्तियाँ हैं, आगे इन्हीं का विस्तार है।
(प्र.) जीवों की अध्यक्षता में केवल परमाणु ही पृथिव्यादि महाभूतों की सष्टि करेंगे ? ( उ० ) उनका ज्ञान अपने कर्मों से उपाजित इन्द्रियों क अधीन है, अतः महाभतों की सृष्टि में अपेक्षित सभी विषयों का ज्ञान जीवों में सम्भव नहीं है। (प्र० ) जीवों में भी सभी विषयों में व्याप्त चैतन्य की सत्ता तो है ही। ( 30 ) तो फिर शरीर से युक्त जीवों में उस सहज चैतन्य का विघटन कौन कर देता हैं ? जिससे कि सभी विषयों को विना देखी हुई वस्तुओं की तरह देखता है। (प्र०) शरीर रूप आवरण के कारण वह सर्वविषयक सहज चैतन्य जीवों में तिरोहित रहता है, केवल प्रकाशित मात्र नहीं होता है । ( उ० ) जीव भी व्यापक है, अतः विषयों के साथ सर्वदा उसका सम्बन्ध रहेगा। जीव नित्य है, अतः विषयों को प्रकाशित करनेवाला स्वभाव भी उसमें बराबर रहेगा। फिर तत्स्वरूप सहज चैतन्य के तिरोभाव में क्या युक्ति है ? (प्र. ) कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का नाश ही उसका तिरोभाव है ? (उ०) फिर जीवों को विषयों का ज्ञान कैसे होता है ? (प्र०) कहीं उसकी वृत्तियाँ निरुद्ध नही भी होती हैं ? (उ० ) ( कहीं वह शक्ति उबुद्ध रहती है एवं कहीं तिरोहित ), इस
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