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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली यत् खलु केचिदेवमाचचक्षिरे-प्रेक्षावत्प्रवृत्तिरिष्टार्थाधिगमा स्यादनिष्टपरिहारार्था वा, न चेष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारावीश्वरे समस्तावाप्तकामे सम्भवतः, तेनास्य जगन्निर्माणे प्रवृत्तिरनुपपन्ना। तत्रोत्तरम्--प्राणिनां भोगभूतय इति। परार्था सिसृक्षायां प्रवृत्तिर्न स्वार्थनिबन्धनेत्यभिप्रायः । नन्वेवं तर्हि सुखमयोमेव सृष्टि कुन्नि दु:खशबलां करुणाप्रवृत्तत्वादित्यत्रैष परिहारः--प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वेति। परार्थ प्रवृत्तोऽपि न सुखमयोमेव करोति, विचित्रकर्माशयसहायस्य कर्तृत्वादित्यर्थः । न चैवं सति करुणाविरोधः, दुःखोत्पादस्य वैराग्यजननद्वारेण परमपुरुषार्थहेतुत्वात । यदि धधिविपेक्ष्य करोति नास्य स्वाधीनं कर्तृत्वमित्यनीश्वरतादोष इत्यस्यायं प्रतिसमाधिः-- आशयानुरूपैर्धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यैः संयोजयति । स हि सर्वप्राणिनां
शब्द का अर्थ है। उसके अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वयं से जीवों को सम्बद्ध करते हैं। अर्थात् जिस जीव का अदृष्ट जिस प्रकार का है उसी के अनुरूप धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य इन चारों वस्तुओं से जीवों को उचित रीति से सम्बद्ध करते हैं, इसमें थोड़ा सा भी इधर उधर नहीं करते ।
इस प्रसङ्ग में किसी की आपत्ति है कि (१) इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति एवं (२) अनिष्ट वस्तुओं के परिहार इन दो भेदों से प्रवृत्ति दो ही प्रकार की है। महेश्वर को सभी वस्तुयें बराबर प्राप्त ही हैं । उनका अनिष्ट तो कोई है ही नहीं, अतः कारण की अनुपपत्ति से संसार रचना की उनकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। इसी आपत्ति का समाधान 'प्राणिनां भोगभूतये' इस वाक्य से दिया है। अमिप्राय यह है कि सृष्टिकार्य में महेश्वर की प्रवृत्ति अपने लिए नहीं है ( उक्त कार्यकारणभाव स्वार्थमूलक प्रवृत्ति का है )। ( इस पर यह आक्षेप हो सकता है कि ) तो फिर वे सुखमयी सृष्टि की ही रचना करते, दुःखबहुल सृष्टि की नहीं, क्योंकि वे करुणा से ही इसमें प्रवृत्त होते हैं। इसी आक्षेप का परिहार प्राणिनां कर्मविपाकं विदित्वा' इस वाक्य से किया गया है। कहने का तात्पर्य है कि दूसरों के लिए प्रवृत्त होनेपर भी केवल सुखमयी सृष्टि नहीं कर सकते, कोंकि सुख और दुःख दोनों के जनक 'विचित्र' कर्माशय के साहाय्य से ही उनमें सृष्टि का कर्तृत्व है। ऐसा होनेपर भी उनकी स्वाभाविक करुणा में कोई अन्तर नहीं आता, क्योंकि वैराग्य के उत्पादन के द्वारा दुःखों का उत्पादन भी परम पुरुषार्थ ( मोक्ष ) का साधन है। अगर सृष्टिकार्य के लिए उन्हें भी जीवों के धर्म और अधर्म की अपेक्षा है तो फिर कहना पड़ेगा कि उनमें सृष्टि कार्य के प्रति स्वातन्त्र्य रूप कर्तृत्व नहीं है, फिर उनमें अनीश्वरत्व का दोष अनिवार्य है । इसी आक्षेप का समाधान 'आशयानुरूपैधर्मज्ञानवैराग्यश्वय्यः संयोजयति' इस वाक्य से किया है। अभिप्राय है कि
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