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न्याय कन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये सृष्टिसंहार
न्यायकन्दली
साध्यमाने पृथिव्यादिनिर्माणसामर्थ्यलक्षणोऽपि विशेषः सिद्धयत्येव, निर्विशेषस्य सामान्यस्य सिद्ध्यभावात् । ननु मा सिद्धयतु सामान्यमिति चेन्न, कार्यत्वेन सह तद्व्याप्तेरप्रतिक्षेपत्वात् । यदि हि व्याप्तमपि न सिद्ध्यति, धूमादप्यग्निसामान्यं न सिद्धयेत्, अग्निविशेषस्यानन्वितस्यासिद्धेः, निर्विशेषस्थानवस्थानात् ।
अथेदमुच्यते--द्वयमनुमानस्य स्वरूपं व्याप्तिः पक्षधर्म्मता च, तत्र व्याप्तिसामर्थ्यात् सामान्यं सिद्धयति, पक्षधर्म्मताबलेन चाभिप्रेतो विशेषः पर्वताद्यवच्छिन्नवह्निलक्षणात्मा सिद्धयति । अन्यथा पक्षधर्म्मताया: क्वोपयोगः क्व चानुमानस्य गृहीतग्राहिणः प्रामाण्यम् ? एवञ्चेत्, ईश्वरानुमानेऽपि तुल्यम्, अन्यत्राभिनिवेशात् । अथ मतम्, सिद्धयत्यनुमाने विशेषोऽपि यत्र प्रमाणविरोधो नास्ति । तथा हि-- धूमात् पर्वतनितम्बवृत्तिवह्निविशेषसिद्धों का नामानुपपत्तिः ? दृष्टो हि देशकालादिभेदः स्वलक्षणानाम् । ईश्वरानुमाने तु विशेषो न सिद्ध्यति, प्रमाणविरोधात् । तथा हिह--नात्र शरीरपूर्वकत्वं साधनीयम्, शरीरे सत्यवश्यमिन्द्रियप्राप्तावतीन्द्रियोपादानोपकरणादिकारकशक्तिपरिज्ञानासम्भवे सति कर्त्तृत्वासम्भवात् ।
जाने पर पृथिव्यादि में उनके निर्माण में समर्थ कर्तृ जन्यत्वरूप विशेष की सिद्धि स्वत: हो जाएगी, क्योंकि विशेषों से रहित सामान्य की सिद्धि सम्भव नहीं है । ( प्र० ) सामान्य की भी सिद्धि न हो ? ( उ० ) नहीं, क्योंकि कार्यत्व में कर्तृ जन्यत्व की व्याप्त है, इसमें कोई गड़बड़ नहीं है । अगर व्याप्ति के रहने पर भी सामान्य की सिद्धि न हो तो फिर धूम से वह्नि सामान्य की भी सिद्धि नहीं होगी ।
अगर यह कहें कि अनुमान के दो रूप हैं—व्याप्ति और पक्षधर्मता । इनमें व्याप्ति के बल से सामान्य की सिद्धि होती हे और पक्षधर्मता के बल से विशेष की सिद्धि होती है । अगर पक्षधर्मता से विशेष का नियमन न हो तो उसका उपयोग ही क्या है ? एवं ज्ञातज्ञापक हो जाने के कारण अनुमान में प्रामाण्य ही कैसे हो ? ( उ० ) अगर यह न्याय है तो फिर ईश्वरानुमान में भी यही न्याय है, अगर आपका कोई विशेष आग्रह न हो । अनुमान से विशेषों की सिद्धि वहीं होती है, जहाँ उसके विरुद्ध कोई प्रमाण उपस्थित नहीं रहता । जैसे कि पर्वत के मूल में वह्निविशेष की सिद्धि होती है । देश और काल के भेद से विशेषों का असाधारण्य प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । इसमें कौनसी अनुपपत्ति है ? किन्तु उक्त अनुमान से पृथिव्यादि के निर्माण में समर्थ कर्ता की सिद्धि का तो विरोधी प्रमाण है, क्योंकि इससे पृथिव्यादि महाभूतों के शरीरी कर्ता की सिद्धि तो आपको इष्ट नहीं है, क्योंकि इससे ईश्वर का शरीर एवं उनकी इन्द्रियाँ माननी पड़ेगी और इन सबों से सब गुड़ गोबर हो जाएगा, क्योंकि इन्द्रियादि से युक्त कर्ता में महाभूतों के अतीन्द्रिय परमाणु रूप उपादानों में कार्योत्पादन शक्ति का ज्ञान सम्भव
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