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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली नन्वसति बाधके प्रतीतिसिद्धस्तथेति व्यवह्रियते, अवयविसद्भावे तु बाधकं प्रमाणमस्ति । तथा हि--पाणौ कम्पवति तदाश्रितं शरीरं न कम्पते, पादे वा कम्पमाने तद्गतं शरीरं न कम्पत इत्येकस्य विरुद्धधर्मताप्रसङ्गः । तदसङ्गतम्, पाणी कम्पमाने शरीरकम्पावश्यम्भावनियमाभावात्। यदा पाणिमात्रं चालयितुं कारणं भवति तदा तन्मात्रं चलति, न शरीरम्, कारणाभवात्। यदा तु शरीरस्यापि चलनकारणं भवेत् तदा शरीरं चलत्येव । नास्याचलनमस्तीति कुतो विरोधः, यदि हस्तश्चलति न शरीरं तदाऽवयवावयविनोयुतसिद्धिः ? नैवम्, पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिः, न चलाचलत्वम्, द्रव्ये चलति गुणस्यातस्मात् उन प्रतीतियों के विषय गुणादि से भिन्न गुणादि के आश्रय, एवं परमाणुसमूहों से भिन्न, किन्तु उनसे उत्पन्न, एवं विज्ञान से भिन्न अवयवी अवश्य ही हैं।
(प्र.) जिस प्रतीति का आगे किसी विरोधी प्रतीति से बाध न हो, वह प्रतीति वस्तु को जिस रूप में उपस्थित करे, वह वस्तु उसी रूप से व्यवहृत होती है । किन्तु 'अवयवों से भिन्न अवयवों में रहनेवाला कोई अवयवी नाम का द्रव्य है' इस बुद्धि को बाधित करनेवाली बुद्धि है, क्योंकि हाथ में कम्पन होने पर भी उसमें रहनेवाला शरीर रूप अवयवी कम्पित नहीं होता । अथवा पैर में कम्पन होने पर भी उसमें रहनेवाला शरीररूप अवयवी कम्पित नहीं होता है। इस प्रकार एक ही अवयवी में अकम्पत्व और कम्पत्व रूप दो विरुद्ध धर्मों की सत्ता माननी पड़ेगी। (उ०) यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि यह नियम नहीं है कि हाथ कांपने पर शरीर अवश्य ही कांपे । जिस समय केवल हाथ में ही कम्पन के कारण रहते हैं, तब केवल वही कम्पित होता है। जब उसमें रहनेवाले शरीर में भी कम्प होने की सामग्री रहती है, उस समय शरीर में भी कम्प होता है। वह भी तो कम्पनशून्य नहीं है, फिर विरोध क्या है ? (प्र. ) अगर हाथ के चलने पर भी शरीर में क्रिया न हो तो अवयव और अवयवियों में 'युतसिद्धि' की आपत्ति होगी। (उ०) इससे 'युतसिद्धि' को आपत्ति नहीं होगी। (क्योंकि अयुतसिद्धि उन दो वस्तुओं में होती है, जिनमें) एक से असम्बद्ध होकर दूसरा न कहीं रहे, और न उनमें कोई रहे, यही वस्तुओं की अयुतसिद्धि है । 'अयुतसिद्धि' शब्द का यह अर्थ नहीं है कि एक के चलने पर दूसरा भी चले, एवं एक के न चलने पर दूसरा भी न
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि 'इति न मृष्यामहे' इत्यादि से जो आक्षेप किया गया है कि प्रतीत होनेवाले गुणसमूह से भिन्न कोई अतिरिक्त द्रव्य नहीं है, उसका समाधान 'भवतां कोऽर्थो दर्शनस्पर्शनविषयः' इतनी पङ्क्तियों से ही हो जाता है। रूपादिसमूह से अतिरिक्त द्रव्य अवश्य है । उसके बाद 'परमाणु-समूह ही अवयवी है' या 'सभी विज्ञानस्वरूप हैं इत्यादि विषयों की चर्चा प्रासङ्गिक है।
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