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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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नाना च न भविष्यति । सर्वश्चायं प्रसङ्गहेतुराश्रयं निघ्नन्नात्मानमपि हन्ति, अवयव्यभावे परमाणुमात्रे जगति धर्म्मधम्मिदृष्टान्तादिप्रतीत्यसिद्धौ निराश्रयस्य वृत्त्यभावात् । अतो नानेन प्रत्यक्षसिद्धोऽवयवी शक्यो निराकर्तुम्, प्रत्यक्षसापेक्षस्य तस्य ततो दुर्बलत्वात् । भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत् ? कुत एतत् ? बाधकेनापाकरणादिति चेत्, प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वे बाधकस्य प्रमाणत्वं बाधकप्रामाण्ये च प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्यापेक्षित्वम् । प्रत्यक्षे तु नायं न्यायः, तस्यानपेक्षत्वात् । न चार्थक्रियासंवादिसर्वलोकसिद्धं स्पष्टप्रतिभासं भ्रान्तमिति युक्तम्, नीलादिप्रत्यक्षस्यापि भ्रान्तत्वप्रसङ्गादिति बाधकोद्धारः । परमाणवोऽवयव्यनुमेया अपि सन्तो व्यवहर्त्तव्याः ।
षट्केन युगपद्योग एकस्य परमाणोः षडंशत्वमापादयन् परमाणुसमवायसम्बन्ध से अनेक अवयवों में रहेगा, इसके लिए उसे नाना अवयवरूप मानने की आवश्यकता नहीं है । विरुद्ध अनुमानों के ये सभी हेतु अपने आश्रय का नाश करते हुए अपना भी नाश करते हैं, क्योंकि अगर अवयवी न रहे तो संसार परमाणुमात्र में परिणत हो जाय । फिर धर्म, धर्मी, दृष्टान्तादि की विलक्षण प्रतीतियों की उपपत्ति न होगी । और ये विरुद्ध अनुमान के हेतु बिना आश्रय के रह नहीं सकते ( अपना काम भी नहीं कर सकते ), अतः इससे प्रत्यक्षसिद्ध अवयवी नहीं हटाया जा सकता, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष सापेक्ष है, अतः अनुमान प्रत्यक्ष से दुर्बल है । ( प्र० ) प्रत्यक्ष भ्रान्त है ? ( उ० ) क्यों ? ( प्र० ) क्योंकि वह बाधक अनुमान से हटा दिया जाता है । ( उ० ) प्रत्यक्ष जब भ्रान्तिरूप से निश्चित होगा तभी बाधक होगा, एवं बाधक अनुमान का प्रामाण्य जब तक निर्णीत नहीं है तब तक प्रत्यक्ष को भ्रान्ति रूप मानना सम्भव नहीं है, इस प्रकार इस पक्ष में अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य है । प्रत्यक्ष को बाधक मानने में यह अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योंकि उसे अपने प्रामाण्य के लिए दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि प्रवृत्ति की सफलता के लिए लोक में प्रसिद्ध स्पष्ट ज्ञानरूप प्रत्यक्ष भ्रान्त है क्योंकि इस प्रकार नीलादि गुणसमूहों
का प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हो जाएगा । इस प्रकार सभी बाधकों का खण्डन हो गया ।
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( प्र० ) छ : परमाणुओं के एक ही समय का संयोग एक एक परमाणु के छः अंशों को सिद्ध करता है, जिससे ( आप के अभिमत निरंश) परमाणु की सत्ता ही उठ
षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता । षण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्यादणुमात्रकः ।।
१. 'षट्केन युगपद्योगः' इत्यादि कन्दलीकार का उठाया हुआ पूर्वपक्ष 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' की इस कारिका की ओर सङ्केत करता है
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