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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये वायु
प्रशस्तपादभाष्यम्
प्राणोऽन्तःशरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेकः सन् क्रियाभेदाद
पानादिसंज्ञां लभते ।
शरीर के अन्दर रहनेवाली एवं उसके रस मल और धातु के प्रेरणादि क्रियाओं का कारण वायु ही 'प्राण' है । यह एक होते हुए भी क्रियाओं की भिन्नता के कारण 'अपान' प्रभृति नामों से भी कही जाती है ।
न्यायकन्दली
सावयविनोरित्युक्तम्, अवयवानामप्यवयवित्वविवक्षया स्थूलवायुपरिग्रहार्थम्, अणुपरिमाणस्य तृणादिप्रेरणसामर्थ्याभावात् । ऊर्ध्वगमनमपि तयोरप्रत्यक्षमिति तत्प्रतिपत्तावनुमानमाह - तृणादिगमनेनानुमीयत इति ।
लोके योगशास्त्रे च विषयवायोर्भेदेन प्रसिद्धस्य प्राणाख्यस्य स्वरूपमाह - प्राणोऽन्तः शरीर इति । अन्तःशरीरे यो वायुर्वर्त्तते स प्राण इत्युच्यते । तस्याक्रियां कथयति - रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरिति । रस इति भुक्तवतामाहारेषु पाकजोत्पत्तिक्रमेणोत्पन्नस्य द्रव्यविशेषस्य ग्रहणम् । मल इति मूत्रपुरीषयोरभिधानम् । धातवस्त्वङमांसास्थिशोणितादयः, तेषां प्रेरणस्येतस्ततो नयनस्य, आदिशब्दाद् व्यूहनस्य च हेतुः । तस्यैकत्वानेकत्वसंशये सत्याह - एकः सन्निति । प्राप्त जल के तरङ्गों की ऊपर की गति । परमाणु को छोड़कर सभी अवयव अवयवी भी हैं, इस अभिप्राय से स्थूल वायु के सङ्ग्रह के लिए 'अवयविनोः' यह करने पर काम चलने की सम्भावना रहने पर भी 'सावयविनो:' यह पद कहा है, क्योंकि अणुपरिमाणवाला द्रव्य तृणादि को इधर उधर नहीं ले जा सकता है । उन दोनों वायुओं की ऊर्ध्व गति भी अप्रत्यक्ष ही है, अतः उसके ज्ञान के लिए अनुमान का प्रयोग 'तृणादिगमनेनानुमीयते ' इस वाक्य से दिखलाये हैं ।
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जनसाधारण में और योगशास्त्र में भी विषयरूप वायु से भिन्न रूप में प्रसिद्ध, प्राण नाम के वायु का स्वरूप 'प्राणोऽन्तः शरीरे' इत्यादि से दिखलाते हैं । अर्थात् शरीर के अन्दर जो वायु है, उसे ही 'प्राण' कहते हैं । 'रसमलधातूनाम्' इत्यादि से प्राण वायु का कार्य दिखलाते हैं । खाये हुए द्रव्यों में ( जाठर अग्निरूप तेज के संयोग रूप ) पाक से रूपरसादि परिवर्तित हो जाते हैं । परिवर्तित इन रूपरसादि से युक्त द्रव्य ही 'रस' शब्द का अर्थ है । विष्ठा और मूत्र ही यहाँ 'मल' शब्द के अर्थ हैं त्वचा, मांस, शोणित प्रभृति यहाँ 'धातु' शब्द से इष्ट हैं । इनके 'प्रेरण' का अर्थात् इधर उधर ले जाने का एवं 'आदि' शब्दसे 'व्यूहन' का अर्थात् विशिष्ट प्रयोग में नियोग का प्राण वायु एक है या अनेक ? इस संशय में कहते हैं 'एक: सन्' ।
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भी कारण है । यह सुना जाता है कि शरीर