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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[द्रव्ये वायु
प्रशस्तपादभाष्यम् भूतैर्वाय्वयवैरारब्धं सर्वशरीरव्यापि त्वगिन्द्रियम् । विषयस्तूपलम्यविरोधी शक्तियों से नष्ट नहीं हुआ है, उन वायवीय अवयवों से इसकी सृष्टि होती है। यह शरीर के भी सभी अंशों में रहती है । इस इन्द्रिय का नाम है त्वचा। विषयरूप वायु प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात स्पर्श का आश्रय, एवं स्पर्श, शब्द, धृति और
न्यायकन्दली मिन्द्रियं तत् पृथिव्याद्यनभिभूतैरप्रतिहतसामर्थ्यर्वाय्ववयवैरारब्धम्, अतो विशिष्टोत्पादादिन्द्रयं स्यादित्यर्थः । तस्य सद्भावे तावत् स्पर्शोपलब्धिरेव प्रमाणम् । वायवीयत्वञ्चास्य रूपादिषु मध्ये स्पर्शस्येवाभिव्यञ्जकत्वावङ्गसङ्गिसलिलशैत्याभिव्यञ्जकसमीकरणवत् । तच्च सर्वशरीरव्यापि, सर्वत्र तत्कार्यस्य स्पर्शो. पलम्भस्य भावात् । त्वगिन्द्रियमिति समाख्या त्वचि स्थितमिन्द्रियं त्वगिन्द्रियमित्युच्यते, तत्स्थे तदुपचारात्, त्वचा सर्वेन्द्रियाधिष्ठानानि व्याप्तानि, सत्यां त्वचि रूपादिग्रहणमसत्यामग्रहणमिति त्वगिन्द्रियं सर्वार्थम्, न तु स्पर्शमात्र ग्राहकमिति केचित्, तदयुक्तम्, अन्धाद्यभावप्रसङ्गात्, तत्तदधिष्ठानभेदेन शक्तिभेदाभ्युपगमे प्रकारान्तरेणेन्द्रियभेदाभ्युपगमः । विषयब्यवस्थानियमनिरूपणार्थम-विषयस्त्विति ।
उपलभ्यमानस्पर्शस्याधिष्ठानभूत आश्रयो यः स विषय इति । किमस्यास्तित्वे प्रमाणम् ? के प्रत्यक्ष का कारण यह इन्द्रिय, पार्थिव अवयवों से अनभिभूत है, अर्थात् जिन वायवीय अवयवों की शक्ति का पार्थिवादि विरोधी शक्तियों से नाश नहीं हुआ है, उनसे बनी हुई है, अतः यह इन्द्रिय है। स्पर्श के प्रत्यक्षरूप प्रमाण से ही इस इन्द्रिय की सत्ता समझी जाती है। यह इन्द्रिय चूंकि रूपादि गुणों में से केवल स्पर्श के प्रत्यक्ष का ही उत्पादक है, अतः पसीने की शीतता को व्यजित करनेवाले समीर की भांति यह (इन्द्रिय) भी वायवीय सिद्ध होती है। शरीर के सभी प्रदेशों में स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है, अतः यह इन्द्रिय शरीर के सभी प्रदेशों में है। चूंकि यह इन्द्रिय त्वचा में रहती है, इसलिए इसका नाम 'त्वक्' है। त्वचारूप अधिकरण में रहने के कारण ही लक्षणा वृत्ति के द्वारा उसके आधेयरूप इन्द्रिय में भी त्वक्' शब्द का प्रयोग होता है । (प्र.) त्वगिन्द्रिय अगर शरीर के सभी प्रदेशों में है तो फिर उसका अन्वय और व्यतिरेक स्पर्श की तरह रूपादि गुणों में भी है, अतः त्वगिन्द्रिय मात्र एक ही इन्द्रिय मान ली जाय, इससे ही रूपादि प्रत्यक्षों का भी निर्वाह हो सकेगा ? (उ०) उक्त कथन असङ्गत है क्योंकि इससे संसार से अन्धापन का मिट जाना मानना पड़ेगा। अगर अधिष्ठान के भेद से त्वचा में ही रूपादि प्रत्यक्ष की विभिन्न शक्तियाँ मानें, तो फिर वह वस्तुतः दूसरे शब्दों में अनेक इन्द्रियों की सत्ता माननी जैसी ही होगी।
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