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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ द्रव्ये वायु
न्यायकन्दली पशुत्वेन शृङ्गानुमानवदनुपलब्धिबाधितम् । द्रव्यस्य स्पार्शनत्वं चाक्षुषत्वेन व्याप्तमवगतं घटादिषु चाक्षुषत्वस्य च वायावभावस्तेनात्र शक्यं स्पार्शनत्वनिवृत्त्यनुमानमेतत्, अतस्तस्याप्रत्यक्षस्य सद्भावेऽनुमानमुपन्यस्यति-स्पर्शशब्दधृतिकम्पलिङ्ग इति । स्पर्शश्च शब्दश्च धृतिश्च कम्पश्चेति ते लिङ्गानि यस्येति बहुव्रीहिः ।
योऽयं रूपादिरहितः स्पर्शः प्रतीयते, स क्वचिदाश्रितः, स्पर्शत्वात्, इतरस्पर्शवत् । न चास्य पृथिव्येवाश्रयो रूपविप्रयोगात् । अस्त्यत्राप्यनुद्भूतं रूपमिति चेन्न, उपलभ्यमानस्य पाथवस्य स्पर्शस्योपलभ्यमानरूपेणैव सहाव्यभिचारोपलम्भात्, न चेह रूपस्यास्त्युपलम्भस्तस्मानायं पार्थिवः स्पर्शः। न चोदकतेजसोरयमाश्रितोऽनुष्णाशीतत्वाद् घटादिस्पर्शवत् । नाप्यमूर्तेष्वाकाशकालदिगात्मसु वर्तते, स्पर्शस्य मूर्ताव्यभिचारोपलम्भात् । मनसाञ्च स्पर्शवत्त्वे परमाणनामिव तेषां सजातीयद्रव्यारम्भकत्वं स्यात्, न चैवम्, तस्मात् तेषामपि न भवति, अतो यत्रायमाश्रितः स वायुरिति परिशेषः । घटादि' यह अनुमान शश (खरहे ) में पशुत्व हेतु से सींग के अनुमान की तरह अनुपलब्धिमूलक बाध दोष से युक्त है । एवं त्वगिन्द्रिय द्वारा वायु के प्रत्यक्ष होने में बाधक अमुमान भी है कि 'स्पार्शन प्रत्यक्ष उसी द्रव्य का होता है, जिसका कि चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है' यह व्याप्ति घटादि में ज्ञात है एवं वायु में चाक्षुषत्व नहीं है, तस्मात् 'वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं होता है। अतः प्रत्यक्ष न होनेवाले वायु की सत्ता में "स्पर्शशब्दधृतिकम्पलिङ्गः” इत्यादि से अनुमान प्रमाण दिखलाया गया है । 'स्पर्शश्च शब्दश्च धृतिश्च कम्पश्चेति ते लिङ्गानि यस्य' इस विग्रह के अनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि स्पर्श, शब्द, धृति और कम्प ये चार जिसके ज्ञापक हैं, वही 'वायु' है।
(१) (सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से) रूपरहितत्व विशिष्ट जिस स्पर्श का प्रत्यक्ष होता है उसका कोई आश्रय अवश्य है, क्योंकि वह भी स्पर्श है, जैसे कि और वस्तुओं का स्पर्श । प्रतीयमान इस स्पर्श का आश्रय पृथिवी नहीं है, क्योंकि इस स्पर्श में रूप का (सामानाधिकरण्य) सम्बन्ध नहीं है। (प्र.) इसमें भी रूप है ही, किन्तु अनुभूत है ? (उ०) नहीं, क्योंकि उपलब्धि के योग्य पृथिवी के स्पर्श का उपलब्धियोग्यरूप साथ ही नियत सम्बन्ध सभी जगहों में देखा जाता है, किन्तु इस स्पर्श के साथ रूप को उपलब्धि नहीं होती है, तस्मात् यह स्पर्श पार्थिव नहीं है। यह स्पर्श तेज और जल का भी नहीं है, क्योंकि यह अनुष्णाशीत है, जैसे कि घटादि का स्पर्श । यह स्पर्श आकाश, काल, दिक् और आत्मा इन अमूर्त द्रव्यों का भी नहीं है, क्योंकि यह अव्यभिचरित नियम है कि स्पर्श मूर्त द्रव्यों में ही रहे। मन में अगर स्पर्श मानें तो फिर उनमें
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