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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली एवं शब्दोऽप्यस्य लिङ्गम, योऽयं पर्णादिष्वकस्माच्छुकशुकाशब्दः श्रूयते तस्याद्यः शब्दः स्पर्शवद्रव्यसंयोगजः, अविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बन्धित्वे सत्यादिशब्दत्वाद् दण्डाहतभेरीशब्दवत्, यश्चासौ स्पर्शवान् स वायुः। आकाशादीनां स्पर्शाभावात् पृथिव्युदकतेजसां च रूपवतां तच्छब्दहेतुत्वे प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात् । विभागजशब्दव्यवच्छेदार्थमविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बधित्वे सतीत्युक्तम् ।
एवमन्तरिक्षे पर्णादीनां धृतिरवस्थितिः स्पशवद्रव्यसंयोगकाऱ्या प्रयत्नवेगादिकारणाभावे सति धतित्वाज्जलोपरि स्थितपर्णादिवत् । यच्च तत् स्पर्शवद्रव्यं न तत् पृथिव्यादित्रयमप्रत्यक्षत्वादेवेति द्रव्यान्तरसिद्धिः । इषोः पक्षिणाञ्च स्थितिव्यवच्छेदार्थ प्रयत्नादिकारणाभावः।
तथा वृक्षादीनां कम्पविशेषः स्पर्शवद्रव्यसंयोगजो विशिष्ट
अपने सजातीय द्वयणुकरूप दूसरे द्रव्य की समवायिकारणता माननी पड़ेगी, किन्तु उनसे किसी द्वयणुकादि द्रव्यों की उत्पत्ति नहीं होती है । तस्मात् यह स्पर्श मन का भी गुण नहीं है, अतः परिशेषानुमान से यह सिद्ध होता है कि उक्त स्पर्श का आश्रय ही 'वायु' है।
(२) इसी प्रकार शब्द भी वायु का ज्ञापक हेतु है । पत्तों में कभी कभी जो शुक शुक प्रभृति शब्द सुनते हैं, उनका पहिला शब्द स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होता है, क्योंकि द्रव्यों के विभाग से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है. और वह पहिला शब्द है, जैसे डंडे से पिटे हुए नगाड़े का शब्द । उक्त स्पर्श का आश्रय ही वायु है। क्योंकि आकाशादि में कोई भी स्पर्श नहीं है । पृथिवी, जल और तेज में से किसी को उसका आश्रय मानने से उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। उस शब्द-श्रवणस्थल में पृथिव्यादि किसी द्रव्य का प्रत्यक्ष नहीं होता है, विभागज शब्द में व्यभिचार के वारण के लिए ('द्रव्यों के विभाग से इसकी उत्पत्ति नहीं होती है' हेतु के इस अंश का बोधक) 'अविभज्यमानावयवद्रव्यसम्बन्धित्वे सति' यह वाक्य कहा है।
(३) इसी तरह आकाश में पत्तों का ठहरना स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से ही होता है, क्योंकि ठहरने के प्रयत्न और वेग प्रभृति कारण वहाँ नहीं हैं । और वह भी ठहरना ही है, जैसे पानी के ऊपर ठहरे हुये पत्ते का ठहरना प्रभृति । इस स्पर्श का आश्रय पृथिवी, जल और तेज रूप द्रव्य भी नहीं हैं, क्योंकि कह चुके हैं कि 'फिर उनका प्रत्यक्ष चाहिए' किन्तु उनमें स किसी का भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः पृथिव्यादि आठ द्रव्यों से भिन्न वायु नाम के द्रव्य की सिद्धि होती है। तीर और चिड़ियों की आकाश में जो स्थिति है, उसमें व्यभिचार वारण करने के लिए (स्थिति के वेगादि और कारणों के न रहने पर भो' इस अर्थ के बोधक) हेतु में, प्रयत्नादिकारणाभाव' का निवेश है।
(४) वृक्षप्रभृति द्रव्यों का विशेष प्रकार का कम्प स्पर्श से युक्त किसी द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होता है, क्योंकि वह भी विशेष प्रकार का कम्प है, जैसे कि नदी के वेग
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