________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
११३
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् भावात । तत्र कार्यलक्षणश्चतुर्विधः, शरीरमिन्द्रियं विषयः प्राण इति । तत्रायोनिजमेव शरीरं मरुतां लोके, पार्थिवावयवोपष्टम्भाच्चोपभोगसमर्थम् । इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकम् , पृथिव्याधनभिकार्य ये दो भेद हैं। इनमें कार्यरूप वायु ( १ ) शरीर ( २ ) इन्द्रिय ( ३ ) विषय
और ( ४ ) प्राण भेद से चार प्रकार के हैं। इनके शरीर अयोनिज ही हैं, जो केवल वायुलोक में ही प्रसिद्ध हैं। इस शरीर में पार्थिव अवयवों के विलक्षण संयोग से सुख और दुःख के अनुभव की क्षमता रहती है । सभी प्राणियों के स्पर्श के प्रत्यक्ष का साधन द्रव्य ही इन्द्रिय रूप वायु है । वायु के जिन अवयवों का बल पार्थिवादि
न्यायकन्दली न केवलं पृथिव्यादयो द्विविधाः, अयमपि द्विविध इति चार्थः । कार्यलक्षणश्चतुर्विधः कार्यस्वभाव इत्यर्थः । चातुविध्यं कथमित्यत आह-शरीरमिन्द्रियं विषयः प्राण इति । तेषां मध्ये शरीरं जात्या निर्धारयति-तत्र शरीरमिति । अयोनिजमेव न तु पार्थिवशरीरवद् योनिजमयोनिजमपीत्यर्थः । मरुतां लोक इति स्थानसङ्कीर्तनम् । भूयसां पार्थिवावयवानां निमित्तकारणभूतानामुपष्टम्भात् संयोगविशेषात् स्थिरं संहतस्वभावमुत्पन्नं पार्थिवशरीरवदुपभोगसमर्थम् । इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकमिति । यत् सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकवायु के प्रकारों का निरूपण करने के लिए लिखते हैं। 'सच' इस शब्द से स्मृति के द्वारा बुद्धि के अत्यन्त निकट ले आने के बाद वायु प्रत्यक्ष वस्तु की तरह कहा गया है। केवल पृथिव्यादि ही दो दो प्रकार के नहीं हैं किन्तु यह वायु भी उन्हीं की तरह दो प्रकार का है, यही ('स च' इस वाक्य में प्रयुक्त) 'च' शब्द से सूचित होता है । 'कार्यलक्षणश्चतुर्विधः' इस वाक्य में आनेवाले 'कार्यलक्षण' शब्द का 'कार्यस्वभाव' अर्थ है । यह चार प्रकार का कैसे है ? इसी प्रश्न का उत्तर 'शरीरमिन्द्रियम्' इत्यादि वाक्य से देते हैं । अर्थात् (१) शरीर, (२) इन्द्रिय, (३) विषय, और (४) प्राण इन भेदों से कार्यरूप वायु चार प्रकार का है। उनमें 'तत्र शरीरम्' इत्यादि से शरीर रूप वायु को जाति के द्वारा निर्धारित करते हैं। अर्थात् वायवीय शरीर केवल अयोनिज ही है, पार्थिव शरीर की तरह योनिज और अयोनिज भेद से दो प्रकार का नहीं । 'मरुतां लोके' यह वाक्त्र इस शरीर के स्थान का निर्देश करता है। निमित्तकारणरूप बहुत से पार्थिव अवयवों के 'उपष्टम्भ' अर्थात् विशेश प्रकार के संयोग से यह शरीर भी ठोस आकार का उत्पन्न होता है और इसी से पार्थिवादि शरीरों की तरह उपभोग कर सकता है। 'इन्द्रियं सर्वप्राणिनां स्पर्शोपलम्भकम्' अभिप्राय यह है कि सभी प्राणियों
For Private And Personal