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[द्रव्ये तेज:
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
यद् वर्त्तते तत् स्वरूपेणाश्रयाश्रितभावलक्षणया वृत्त्या वर्तते । न चैकस्यानेकसंसर्गो विरुद्धयते । दृष्टो हि चित्रज्ञाने नीलाकारावछिन्ने पीताद्याकारसंसर्गः । न च तस्य प्रत्याकारं भेदः, एकस्यानेकाकारग्रहणानुपपत्तौ भवतां चित्रप्रत्ययाभावप्रसङ्गात् । नापि ज्ञानकत्वादाकाराणामप्येकत्वम्, चित्रानुभव. विरोधात् । यथैकावयवावच्छिन्ने एकावयविस्वभावेऽवयवान्तरसमावेशः प्रत्यक्षे. णानेकावयवसम्बद्धस्य, तथैकस्य स्थूलात्मनः संवेदनादेकस्मिन्ननेकसंसर्गो दृष्टो नैकस्यानेकेषु संसर्ग इति च वैधय॑मात्रम्, एकस्यानेकसंसर्गावच्छेदस्योभयत्राविशेषात् । एवं यदेकं तदेकत्रैव वर्तते, यथैक रूपमेकश्चावयवीति, तथा यदनेकवृत्ति तदनेकम्, यथानेकभाजनगततालफलान्यनेकवृत्तिश्चावयवीति प्रसङ्गद्वयं प्रत्याख्यातम्, स्वतः परतश्च व्याप्त्यसिद्धेः, स्वतस्तावदेकं विज्ञानमनेकेषु विषयेन्द्रियमनस्कारेषु स्वरूपाभेदेन तदुत्पत्त्या वर्त्तते, परस्याप्येकं सूत्रमभेदेनानेकेषु मणिषु संयोगवृत्या वर्त्तते, तथाऽवयव्यवयवेषु समवायवृत्त्या वतिष्यते
नहीं है, क्योंकि 'एकदेश' या 'सम्पूर्णरूप' इन दोनों में कोई भी 'वृत्ति' अर्थात् सम्बन्ध नहीं है, एवं सम्बन्ध के कारण भी नहीं हैं ।
किसी वस्तु का किसी वस्तु में रहना, उन दोनों वस्तुओं के आधाराधेयभावसम्बन्ध से ही होता है । अनेक वस्तुओं में एक वस्तु का सम्बन्ध विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि चित्रज्ञानस्थल में नीलाकारविशिष्ट में पीताकार का सम्बन्ध सर्वजनीन अनुभव से सिद्ध है । चित्ररूप की प्रतीति में उसके आश्रय रूप से भासित होनेवाली वस्तु नीलादि आकारों के भेद से भिन्न-भिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि फिर उसमें चित्र रूप की प्रतीति नहीं होगी। (एक वस्तु में अनेक आकारों के रूप की प्रतीति ही चित्र की प्रतीति है) एक ज्ञान में भासित होने के कारण ( नीलादि सभी) आकारों को एक मानना भी सम्भव नहीं है । (प्र. ) एक वस्तु एक ही आश्रय में रह सकती है, जैसे कि एक रूप । अवयवी भी एक ही है, (तस्मात् अनेक अवयवों में रहनेवाला अवयवी एक नहीं हो सकता ), एवं जो वस्तु अनेक आश्रयों में रहता है वह स्वयं भी अनेकात्मक ही है, जैसे कि अनेक पात्रों में रक्खे हुए अनेक तालफल । (तस्मात् अनेक अवयवों में रहनेवाला अवयवी अनेकात्मक ही हो सकता है, एकात्मक नहीं )। (उ०) किन्तु ये दोनों ही बाधक अनुमान अनादर के पात्र हैं, क्योंकि इनमें व्याप्ति न पूर्वपक्षवादी बौद्धों के मत से सिद्ध है, न हम लोगों के मत से । बौद्धों के मत में भी एक ही विज्ञान अपने उत्पत्तिरूप सम्बन्ध से और अपने स्वरूप के अभेद से विषय, इन्द्रिय और मनोवृत्ति इन अनेक वस्तुओं में रहता है। हम लोगों के मत में भी एक डोरी अनेक मणियों में संयोग सम्बन्ध से रहती है। अतः एक अवयवी भी
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