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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् विन्धनं सौरविद्युदादि, भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम, आकरजश्च सुवर्णादि । त्र संयुक्तसमवायाद्रसाधुपलब्धिरिति । देवे, उसी विषय रूपी तेज को 'दिव्य' कहते हैं, इसके अन्तर्गत सौर तेज और विद्युत् प्रभृति आते हैं। खाये हुये द्रव्य को पचानेवाला उदर का तेज ही 'उदयं' तेज है । सुवर्ण प्रभृति ‘आकरज' तेज हैं। उनमें रस की उपलब्धि संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से होती है।
न्यायकन्दली त्पद्यते, निराश्रयस्यानुत्पत्तेः। काष्ठग्रहणमुपलक्षणार्थम्, तृणतुषादीनामपि कारणत्वात्, ऊर्ध्वं ज्वलनं क्रियाविशेषः, तत्स्वभावकं तद्धर्मकम् । पचनस्वेदनादिसमर्थम्, पचनं पूर्वगुणविलक्षणं गुणान्तरोत्पादनम्, स्वेदनं स्तब्धत्वनाशनम्, आदिशब्दाद्विस्फोटादिजननलक्षणं दहनं तत्र समर्थमित्यर्थक्रियोपवर्णनम् । दिव्यमबिन्धनं सौरं विद्युदादिभवं तेजोऽबिन्धनम्, आप इन्धनं यस्येति व्युत्पत्त्या तत् सौरं विद्युदादि, आदिशब्दादुल्काया अवबोधः । भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम्, उदरे भवं तेजो भुक्तस्याहारस्य रसमलधातुभावेन परिणामप्रयोजनम् । आकरजञ्च सुवर्णादि। आकरः स्थानविशेषः, तस्मिन् सुवर्णरजतादि तैजसं द्रव्यं जायते। सुवर्णादीनां तैजसत्वे तावदागमः प्रमाणम् । न्यायश्चाभिहितः । इन्धन से जिसकी उत्पत्ति हो, वही तेज काष्ठेन्धनप्रभव' है, क्योंकि बिना आश्रय के किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'काष्ठ' पद उपलक्षण है, क्योंकि तिनके
और भूसे आदि पृथिवी से भी अग्नि की उत्पत्ति होती है। 'ऊर्ध्वज्वलन' ऊपर की तरफ उठनेवाली एक क्रिया है, वही 'स्वभाव' अर्थात् धर्म इस तेज का है। ‘पचनस्वेदनादिसमर्थम्' पचन शब्द का अर्थ है-द्रव्य में पहिले से विद्यमान गुणों से दूसरे प्रकार के गुणों का उत्पादन । स्वेदन शब्द का अर्थ है-काठिन्य का नाश करना। 'आदि' शब्द से 'विस्फोट' आदि इसके कार्य सूचित किये गये हैं। यह 'भीम' तेज से होनेवाले कार्यों का विवरण है 'आप इन्धनं यस्य' इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न 'अबिन्धन' शब्द से समझे जानेवाले सौर एवं विद्युत् प्रभृति एवं उससे उत्पन्न तेज ही 'दिव्य' तेज है। प्रकृत आदि शब्द से उल्का प्रभृति तेजों का परिग्रह इस दिव्य तेज के अन्तर्गत करना चाहिए । 'भुक्तस्याहारस्य रसादिपरिणामार्थमुदर्यम्' 'उदरे भवं तेजः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उदर्य शब्द से खाये हुये अन्नादि को रस, मल, धातु प्रति रूपों में परिणत करनेवाला पेट का तेज ही अभीष्ट है । 'आकरजं सुवर्णादि' विशेष प्रकार के स्थान (खान) को 'आकर' कहते हैं। उसमें सोना चाँदी प्रभूति द्रब्य उत्पन्न होते हैं। सुवर्णादि के तैजस द्रव्य होने में (“अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णम्" इत्यादि ) आगम भी प्रमाण हैं। सुवर्णादि द्रव्य के तैजस
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