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न्यायकन्दली संचलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
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[ द्रव्ये जल
अपत्वाभिसम्बन्धादापः ।
'यह जल है' इस प्रकार का व्यवहार 'जलत्व' जाति के सम्बन्ध से करना चाहिए ।
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न्यायकन्दली
अपां लक्षणमाह-- अपत्वाभिसम्बन्धादापः । अत्रापि व्यवहारसाधनं समानासमानजातीयव्यवच्छेदो वा लक्षणार्थ: पूर्ववत् । इदन्त्विह वक्तव्यम् - स्वयं प्रत्यक्षाधिगतपदार्थभेद: परस्य लक्षणेन प्रतिपादयेत्, अप्रतिपन्नस्याप्रतिपादकत्वात् । भेदश्व पदार्थानामन्योन्याभावलक्षणः । स च यस्याभावो यत्र चाभावस्तदुभयग्रहणेन गृह्यते, अन्यथा तत्स्वरूपप्रतिनियमेन निषेधानुपपत्तिः, गौरश्वो न भवतीति । तत्र किं सङ्कीर्णयोरुभयोर्ग्रहणादन्योन्याभावग्रहणं परस्परविविक्तयोर्वा ? सङ्कीर्णग्रहणे तावदयमयं न भवतीति प्रतीत्यसम्भव एव । परस्परविविक्तयोर्ग्रहणादभावप्रतीतावितरेतराश्रयत्वम्, विविक्तयोर्ग्रहणे सत्यभावग्रहणमभावग्रहणे च विविक्तग्रहणम्, अभाव एव विवेको यतः । अत्रोच्यते, भिन्नयोरितरेतराभावो नत्वितरेतरादूसरे रूप से भी वे कहे जा सकते हैं, अतः वे स्थावर वर्ग में नहीं कहे गये ।
'अप्त्वाभिसम्बन्धादाप:' इत्यादि से जल का लक्षण कहते हैं । यहाँ भी 'यह जल है' इस व्यवहार का साधन अथवा जल को उनके सजातीत एवं विजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से समझाना हौ जल के लक्षण का प्रयोजन है । ( प्र०) यहाँ यह पूछना है कि जिस व्यक्ति को लक्ष्य और उसके सजातीय विजातीयों के भेद प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञात हैं, वही व्यक्ति लक्षण के द्वारा इस विषय को दूसरों को समझा सकता है अज्ञ व्यक्ति किसी को भी नहीं समझा सकता । पदार्थों के भेद एवं अन्योन्याभाव दोनों ही एक वस्तु हैं । जिसमें जिस वस्तु का अन्योन्याभाव समझाना है, उन दोनों के ज्ञान से ही अन्योन्याभाव ज्ञात होता है । अन्यथा गो अश्व नहीं है' इस निषेध के लिए नियमतः प्रतियोगी और अनुयोगी दोनों का उल्लेख अनुपपन्न हो जाएगा। इस प्रसङ्ग में प्रष्टव्य है कि भेद-ज्ञान के लिए परस्पर सम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी इन दोनों का ज्ञान आवश्यक है या परस्पर असम्बद्ध अनुयोगी और प्रतियोगी का ज्ञान ? इनमें परस्पर सम्बद्ध प्रतियोगी और अनुयोगी के नहीं है, क्योंकि 'यह' (घट) 'यह' (पट) नहीं है' इस प्रकार की प्रतीति नहीं होती है । परस्पर विविक्त अनुयोगी और प्रतियोगी के ज्ञान से अगर भेद का ज्ञान मानें तो फिर अन्योन्याश्रय दोष अनिवार्य होगा, क्योंकि भेद का ज्ञान परस्पर विविक्त प्रतियोगी और अनुयोगी के ज्ञान से होगा, एवं भेद-ज्ञान से परस्पर विवेक की वृद्धि होगी, क्योंकि
ज्ञान से तो भेद का ज्ञान सम्भव