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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [द्रव्ये तेज:--
प्रशस्तपादभाष्यम् तदपि द्विविधमणुकार्यभावात् । कार्यश्च शरीरादित्रयम् ।
यह भी परमाणु (नित्य) और कार्य के भेद से दो प्रकार का है, एवं कार्यरूप तेज के शरीर, इन्द्रिय एवं विषय भेद से तीन प्रकार हैं। तैजस
न्यायकन्दली
साधारणमेव सूत्रम् । यादृशमस्य रूपं तद्दर्शयति--शुक्लं भास्वरञ्चेति । शुक्लं रूपं पृथिव्युदकयोरप्यस्ति, किन्तु न भास्वरं रूपम्, स्वरूपप्रकाशकं शुक्लं रूपं तेजस्येवेति वैधर्म्यम् । यत् त्वस्य लोहितं कपिलं वा रूपं क्वचित् प्रतीयते तदाश्रयोपाधिकृतम्, निराश्रयस्य सर्वत्र शुक्लतामात्रप्रतीतेः, यथा प्रदीपप्रभामण्डलस्य सौरचन्द्राद्यालोकस्य च उष्ण एव स्पर्श इति । पृथिव्युदकमरुतामनुष्णाशीतशीतानुष्णाशीतस्पर्शाः, उष्ण एव तेजसि स्पर्श इति वैधर्म्यम् ।
पृथिव्युदकवत् तेजसोऽपि वैविध्यमपिशब्देन सम्भावयन्नाह-तदपीति । अणुभावात् कार्यभावात् तेजोऽपि द्विविधमिति । कार्यञ्च शरीरादित्रयम्, शरीरमिन्द्रियं रूपस्पर्शवत्" (२-१-३)। (अर्थात् भास्वर शुक्ल रूप एवं उष्ण स्पर्श से युक्त द्रव्य ही 'तेज' है। तेज में संख्यादि गुणों का प्रतिपादक "संख्याः परिमाणानि" (४-१-११) इत्यादि सामान्य सूत्र ही है। तेज में किस प्रकार का रूप है ? इसका उत्तर ' शुक्लं भास्वरञ्च' इत्यादि से देते हैं । यद्यपि शुक्ल रूप पृथिवी और जल में भी है, तथापि उनका शुक्ल रूप 'भास्वर' अर्थात् अपने रूप एवं पररूप दोनों का प्रकाशक नहीं है। इस प्रकार का शुक्ल रूप केवल तेज में ही है, अतः भास्वर शक्ल रूप तेज का लक्षण है। कहीं कहीं तेज में जो लाल पीले प्रभृति रूपों के दर्शन होते हैं, वह आश्रयरूप उपाधिमूलक हैं, क्योंकि प्रदीप और सौर प्रकाश प्रभृति में सभी जगह शुक्लता की ही प्रतीति होती है । 'उष्ण एव स्पर्शः' अर्थात् पृथिवी में अनुष्णाशीत स्पर्श, जल में शीत स्पर्श एवं वायु में अनुष्णाशीत स्पर्श हैं, किन्तु तेज में केवल उष्ण स्पर्श ही है, अर्थात् केवल उष्ण स्पर्श भी तेज' का लक्षण है।
___ 'तदपि' इस वाक्य के 'अपि' शब्द के द्वारा सूचित करते हैं कि पृथिवी एवं जल की तरह तेज के भी दो प्रकार हैं । अर्थात् परमाणु स्वरूप एवं कार्य स्वरूप
है, क्योंकि वह भी क्रिया है, जैसे कि छेदनादि क्रिया। रस प्रत्यक्ष का करणत्व चक्षुरादि इन्द्रियों में बाधित है, अतः इन सभी से भिन्न कोई इस क्रिया का करण मानना पड़ेगा, जिसका अन्वर्थ नाम है 'रसना' ।
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