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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेजः । रूपस्पर्शसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वद्रवत्वसंस्कारवत् । पूर्ववदेषां सिद्धिः । तत्र शुक्लं भास्वरश्च रूपम् । उष्ण एव स्पर्शः ।
तेज का व्यवहार तेजस्त्व जाति के सम्बन्ध से करना चाहिए। यह रूप, स्पर्श, सङ्ख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व और संस्कार इन ग्यारह गुणों से युक्त है। इसमें भी गुणों की सिद्धि पृथिवी और जल की तरह सूत्रकार की उक्तियों से समझनी चाहिए। इसमें रूपों में से भास्वर शुक्ल रूप ही, एवं स्पर्शों में से उष्ण स्पर्श ही है।
न्यायकन्दली करणसाध्यत्वात् । आप्यत्वं रूपादिषु मध्ये रसव्यञ्जकत्वात्, मुखशोषिणां लालादिद्रव्यवत् । विषयनिरूपणार्थमाह--विषयस्त्विति । सरित्समुद्रौ हिमं करको धनोपलमित्यादिविषयो भोग्यत्वेन भोक्तुर्भोगसाधनत्वात् ।
तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेज इति । व्याख्यानं पूर्ववत् । तेजस्स्वमिव रूपाोकादशग्रणयोगोऽपि तस्य वैधय॑मिति दर्शयति--रूपेत्यादि। पूर्ववत्तेषां सिद्धिरिति । यथा सूत्रकारवचनाद्रूपादीनां पृथिव्यां सिद्धस्तथा तेजस्थपीत्यर्थः । तथा च सूत्रम्--'तेजोऽपि रूपस्पर्शवत्" (२-१-३)। सङ्खयादिप्रतिपादकन्तु की सत्ता में प्रमाण है, क्योंकि क्रिया करण से ही निष्पन्न होती है । रसनेन्द्रिय जलीय इस लिए है कि रूपादि गुणों में से वह रस को ही व्यक्त करती है, जैसे कि मुंह का तरल द्रव्य । विषयरूप जल को समझाने के लिए 'विषयस्तु' इत्यादि वाक्य लिखते हैं। चूंकि नदी, समुद्र, पाला, बरफ प्रभृति द्रव्य जीव के सुखदुःखानुभव के साधन हैं, अतः ये विषयरूप जल हैं।
___ 'पृथिवीत्वादिसम्बन्धात् पृथिवी', अपत्वाभिसम्बन्धादापः' इत्यादि पहिले वाक्यों की तरह तेजस्त्वाभिसम्बन्धात्तेजः' इस वाक्य की भी व्याख्या करनी चाहिए । 'रूपस्पर्श इत्यादि पति का तात्पर्य है कि तेजस्व जाति की तरह रूपादि ग्यारह गुणों का सम्बन्ध भी तेज का 'वैधर्म्य' अर्थात् लक्षण है। 'पूर्ववत्तेषां सिद्धिः' अर्थात् जैसे पृथिव्यादि द्रव्यों में सूत्ररूप वचनों से गुणों की सत्ता प्रमाणित की है, उसी प्रकार सौत्र वचनों से ही तेज में भी रूपादि ग्यारह गुणों को सिद्धि समझनी चाहिए। जैसा कि सूत्र है-"तेजोऽपि
१. अभिप्राय यह है कि छेदनादि क्रिया कुठारादि करणों से ही निष्पन्न देखी जाती हैं। इस दृष्टान्त से यह अनुमान सुलभ है कि रस प्रत्यक्षरूप क्रिया का भी कोई करण
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