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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
दाप्यं शरीरमुपभोगाय समर्थं स्यात् । आप्यशरीरोत्पत्तौ पार्थिवावयवा निमित्तकारणम्, तेषां संयोगादाप्यावयवानां द्रवत्वे प्रतिरुद्धे विशिष्टमेवेदं शरीरमुत्पद्यते, न जलबुबुदप्रायमित्यर्थः। ये तु पञ्चभूतसमवायिकारणं शरीरमित्यास्थिषत, तेषामगन्धं शरीरं स्यात्, कारणगन्धस्यैकस्यानारम्भकत्वात्। चित्ररूपरसस्पशश्च प्राप्नोति कारणेषु नानारूपरसस्पर्शसम्भवात् । न चैवं दृष्टम्, तस्मान्न पञ्चभूतप्रकृतिकम् । भूजलप्रकृतिकमप्यत एव न स्यात्, अत एव भूजलानिलप्रकृतिकमपि न स्यात्, भूवाय्वाकाशप्रकृतिकत्वेऽरूपमरसमगन्धञ्च स्यात्, अनलानिलाकाशप्रकृतिकत्वे चागन्धमरसं चेत्यादि यथासम्भवं योजनीयम् । न च पञ्चभूतसमवायिकारणत्वे शरीरस्यैकत्वं प्राप्नोति, स्वभावभेदेन भेदोपपत्तेः। मानुषं शरीरं पृथिव्यात्मकं गन्धवत्त्वात् परमाणुलक्षणपृथिवीवत् । उदकादिधर्मोपलम्भः कथमत्रेति चेत् ? संयुक्तसमवायादित्यलम् ।
अर्थात् विलक्षण संयोग से जलीय शरीर में उपभोग की क्षमता आएगी। कहने का तात्पर्य है कि जलीय शरीर के पार्थिव अवयव भी निमित्तकारण हैं। उनके संयोग से जल का द्रवत्व प्रतिरुद्ध हो जाता है, अतः उसके बाद जलीच शरीर भी विशेष आकार का ही उत्पन्न होता है, जल के बुबुद की तरह नहीं। जो कोई (प्र०) पृथिवी, जल, तेल, वायु और आकाश इन पाँचों द्रव्यों को सभी शरीरों का समवायिकारण मानते हैं, उनके मत में ( उ०) (१) शरीर गन्ध से सर्वथा रहित होगा, क्योंकि समवायिकारणों में से किसी एकमात्र में रहनेवाला केवल एक गुण कार्य के गुण को उत्पन्न नहीं कर सकता। (२) एवं पाँचों महाभूतों से उत्पन्न शरीर में चित्र रूप, चित्र रस, चित्र गन्ध और चित्र स्पर्श की सत्ता माननी पड़ेगी, क्योंकि शरोर के समवायिकारणों में नाना तरह के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हैं, किन्तु चित्र रूपरसादिविशिष्ट शरीर की कहीं उपलब्धि नहीं होती। तस्मात् पाँचों महाभूत सम्मिलित होकर किसी भी एक शरीर के समवाधिकारण नहीं हैं, इसी हेतु से पृथिवी और जल ये दोनों भी किसी एक शरीर के समवायिकारण नहीं हैं, एवं पृथिवी, जल और वायु ये तीनों भी किसी एक शरीर के समवायिकारण नहीं हैं। पृथिवी, वायु और आकाश इन तीनों को अगर किसी एक शरीर का समवायिकारण माने तो इनसे उत्पन्न शरीर रूप, रस और गन्ध इन तीनों से रहित होगा। अगर तेज वायु और आकाश इन तीनों को एक शरीर का समवायिकारण मानें तो फिर इन तीनों कारणों से उत्पन्न शरीर गन्ध और रस से शून्य होगा। इग प्रकार और भी कल्पना करनी चाहिए। पञ्च महाभूत रूप अनेक समवायिकारणों से शरीररूप एक कार्य की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि सभी के स्वभाव अलग अलग हैं। भिन्न स्वभाव के व्यक्तियों से एक स्वभाव के कार्य
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