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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
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प्रशस्तपादभाष्यम् स्नेहोऽम्भस्येव सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वम् । स्नेह एवं सांसिद्धिक ( स्वाभाविक ) द्रवत्व केवल जल में ही रहते हैं।
न्यायकन्दली निविशेष एव स्नेहोऽपां वैधर्म्यमिति ध्वनति-स्नेहोऽम्भस्येवेति । नन्वयं पृथिव्यामपि वर्त्तते, यथा क्षीरे तैले सपिषि च । न सर्वत्र, पाषाणेष्टकाशुष्कन्धनादिष्वसम्भवात् । यत्तु क्वचित् क्षीरादिषु दर्शनं तत्संयुक्तसमवायादुदकगतस्यैव, यथा सांसिद्धिकद्रवत्वस्य क्षीरतैलयोः । उदकधर्मत्वन्तु स्नेहस्य सर्वत्र तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् । तथा चानूपदेशप्रभवानां तरुणादीनां स्निग्धता, जाङ्गलप्रदेशप्रभवानाञ्च रूक्षता । तत्रापि सततं परिषिच्यमानमूलानां स्निग्धत्वं तद्विरहिणाञ्च तन्नास्तीति।
सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वमिति । न केवलं स्नेहः, स्वभावसिद्धञ्च द्रवत्वमम्भस्येवेत्यर्थः । क्षीरतैलयोस्त्वाश्रयसन्निकर्षेण तदुपलम्भः, क्वचित् तयोघनत्वोपलम्भात् ।
किसी और वस्तु को साथ में न लेकर भी स्वतन्त्र रूप से केवल स्नेह जल का असाधारण धर्म हो सकता है, यही बात 'स्नेहोऽम्भस्येव' इस वाक्य से सूचित करते हैं । (प्र०) स्नेह तो जल की तरह दूध, तेल, घी प्रभृति में भी है ? ( उ०) नहीं, क्योंकि पत्थर, इट, सूखे काठ प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में स्नेह की उपलब्धि नहीं होती। दूध प्रभृति पार्थिव द्रव्यों में जल का स्नेह हो संयुक्तसमवाय सम्बन्ध से उपलब्ध होता है जैसे कि दूध प्रभृति में ही स्रांसिद्धिक द्रवत्व की उपलब्धि होती है : सभी जलों में स्नेह की उपलब्धि ( रूप अन्वय ) एवं जल से भिन्न सभी वस्तुओं में स्नेह की अनुपलब्धि ( रूप व्यतिरेक ) ये ही दोनों 'स्नेह जल के ही धर्म है' इसमें प्रमाण है । अतः 'अनूप' देश में उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि और तिनके स्निग्ध, एवं "जाङ्गल' प्रदेश में उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि रूक्ष देखे जाते हैं। जाङ्गल प्रदेश में भी बराबर सींचे जाने वाले वृक्षादि स्निग्ध देखे जाते हैं तथा बराबर न सींचे जानेवाले वृक्षादि रूक्ष देखे जाते हैं।
सांसिद्धिकञ्च द्रवत्वम्' अर्थात् बिना किसी की सहायता से स्वतन्त्र रूप से केवल स्नेह ही जल का बैधर्म्य नहीं है, किन्तु केवल 'सांसिद्धिक द्रवत्व' भी उसी रूप से जल का वैधर्म्य है, क्योंकि वह भी केवल जल में ही है। दूध और तेल में आश्रय के सम्बन्ध से सांसिद्धिक द्रवत्व की प्रतीति होती है, क्योंकि उनमें कभी काठिन्य की प्रतीति भी होती है।
१. स्वल्पोदकतणो यस्तु प्रवातः प्रचुरातपः।
स ज्ञेयो जाङ्गलो देशो बहुधान्यादिसंयुतः ।।
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