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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् रूपरसस्पर्शद्रवत्वस्नेहसङ्ख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वा
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परत्वगुरुत्व संस्कारवत्यः । पूर्ववदेषां सिद्धिः ।
यह (जल) रूप, रस, स्पर्श, द्रवत्व, स्नेह, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व और संस्कार इन चौदह गुणों से युक्त है । पृथिवी की तरह सूत्र के वाक्यों से जल में ( भी ) गुणों की सिद्धि समझनी चाहिए ।
न्यायकन्दली
भावो भेदः । यदेतद् वस्तुनः प्रात्यात्मिकं स्वरूपं स एव भेदः, तच्चापरदर्शनानपेक्षमिन्द्रियसन्निकर्षमात्रादेव प्रतीयमानं प्रत्येकं विलक्षणमेव संवेद्यते । तथा हिगवार्थी नाश्वदर्शनात् प्रवर्त्तते, गोशब्दञ्च न स्मरति, तत्राश्वे गवि च स्वेन स्वेनात्मना गृह्यमाणेन तत्स्वरूपनियमेनान्योन्याभावप्रतीतिर्नानुपपन्ना । न चैवं सति वाच्यं स्वरूपभेद एवास्तु किमन्योन्याभावेनेति, तस्यापि प्रतिषेधविषयस्य संवेदनात् ।
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न केवलमपत्वमपां वैधर्म्यं स्नेहसहचरितं चतुर्दशगुणवत्त्वमपीतरेभ्यो वैधर्म्यमिति प्रतिपादयन्नाह - रूपरसेति । अत्र द्वन्द्वानन्तरं मतुप्प्रत्ययः करणीयः । पूर्ववदेषां सिद्धिः । यथा पूर्वं पृथिव्यां सूत्रकारवचनादेषां रूपादीनां गुणानां विवेक वस्तुतः भेद ही है । ( उ० ) इस प्रश्न के समाधान में हम यह कहते हैं कि परस्पर भिन्न दो वस्तुओं में अन्योन्याभाव रहता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि (प्रकृत) भेद और अन्योन्याभाव दोनों ( यहाँ ) एक ही वस्तु हैं । प्रत्येक वस्तु में रहनेवाला असाधारण धर्म ही यहाँ ( भेद ) है । यह भेद ( आश्रय में ) इन्द्रिय सम्बन्ध के होते ही और किसी के ज्ञान की अपेक्षा न करके और व्यक्तियों के असाधारण धर्म से विलक्षण रूप में प्रतिभासित होता है। गाय का प्रयोजन जिस व्यक्ति को है, वह अश्व के देखने से न प्रवृत्त होता है, न गो शब्द का स्मरण हो करता है । वहाँ गो और अदव में असाधारण रूप से ज्ञात होनेवाले नियमित तत्तत् असाधारण धर्मों से दोनों में अन्योन्याभाव की प्रतीति में कोई अन्तर नहीं आता । इस लिए यह प्रश्न भी ठीक नहीं है कि ( प्र०) वस्तुओं के तत्तत् असाधारण धर्म से अतिरिक्त भेद मानने की आवश्यकता नहीं है । ( उ० ) क्योंकि भेद की प्रतीति नञ् प्रभृति निषेधार्थक शब्दघटित वाक्यों से होती है । केवल जलत्व जाति ही इसका असाधारण धर्म नहीं है, किन्तु स्नेहादि चोदह tat आश्रयत्व भी औरों से जल का वैधर्म्य है, यह उपपादन करते हुए रूप, रस, इत्यादि सन्दर्भ लिखते हैं । यहाँ द्वन्द्व समास के बाद मतुप् प्रत्यय करना चाहिए । 'पूर्ववदेषां सिद्धि:' जैसे कि पहिले अर्थात् पृथिवी में सूत्रकार के वाक्यों से रूपादि गुणों की सिद्धि