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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
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७५.
यद्यपि रूपं त्रयाणाम्, तथाप्यवान्तरभेदापेक्षया तदपि पृथिव्या एव वैधर्म्यमाह - रूपमनेकप्रकारकमिति । अत्रापि क्षितावेवेत्यनुसन्धानीयम् । शुक्लपीताद्यनेकविधं रूपं क्षितावेव नान्यत्रेत्यर्थः । एकस्यां पृथिवीत्वजातौ नानारूपाणि व्यक्तिभेदेन समवयन्ति । क्वचिदेकस्यामपि व्यक्तावनेकप्रकाररूपसमावेशः, यत्र नानाविधरूप सम्बन्धिभिरवयवैरवयव्यारभ्यते । कथमेतदिति चेत् ? उच्यते, यथावयवैरवयव्यारब्धस्तथावयवरूपैरवयविनि रूपमारब्धव्यम्, अवयवेषु च न शुक्लमेव रूपमस्ति, नापि श्याममेव किन्तु श्यामशुक्लहरितादीनि । न च तेषामेकं रूपमेवारभते नापराणीत्यस्ति नियमः, प्रत्येकमन्यत्र सर्वेषामपि सामर्थ्यदर्शनात् । न च परस्परं विरोधेन सर्वाण्यपि नारभन्त एवेति युक्तम् । चित्ररूपस्यावयविन: प्रतीतेररूपस्य द्रव्यस्य प्रत्यक्षत्वाभावाच्च । न चावयवरूपाणि समुच्चितान्यत्र चित्रधिया प्रतीयन्ते तेनैवावयवी प्रत्यक्ष इति कल्पनायामन्यत्रापि तथाभावप्रसङ्गेनावयविरूपोच्छेदप्रसङ्गः, तस्मात् सम्भूय तैरारभ्यते । तच्चारभ्यमाणं
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यद्यपि रूप पृथिवी, जल और तेज इन तीनों द्रव्यों में है, किन्तु अगर विशेष रूप से देखा जाय तो अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, इस प्रकार रूप भी पृथिवी का असाधारण धर्म हो सकता है । इसी अभिप्राय से "रूपमनेक प्रकारकम्” यह वाक्य लिखा है । इस वाक्य में भी ' क्षितावेव' इतना इस अभिप्राय से जोड़ देना चाहिए कि शुक्ल पीतादि अनेक प्रकार के रूप पृथिवी में ही हैं, और द्रव्यों में नहीं । एक ही पृथिवीत्व जाति के द्रव्यों में व्यक्तिभेद से अनेक प्रकार के रूप देखे जाते हैं । कहीं एक ही व्यक्ति में नाना प्रकार के रूपों का समावेश देखा जाता है, जहाँ कि नाना रूप के अवयवों से एक अवयवी की उत्पत्ति होती है । (प्र०) यह कैसे होता है ? ( उ० ) जिस तरह अवयवों से अवयवी की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अवयवों के रूपों से अवयवी रूप की उत्पत्ति होती है । (कथित पट के ) अवयवों में न केवल शुक्ल रूप ही हैं, न केवल नील रूप ही, किन्तु श्याम शुक्ल, हरित प्रभृति अनेक रूप हैं । इसका कोई नियामक नहीं है कि उनमें से कोई एक ही रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हैं और रूप नहीं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक रूप और जगह अवयवी में रूप को उत्पन्न करते हुए दीख पड़ते हैं । यह भी ठीक नहीं है कि यहाँ परस्पर विरोध के कारण कोई भी रूप अवयवी में रूप को उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि चित्र रूप से युक्त अवयवी का प्रत्यक्ष होता है, एवं बिना रूप के द्रव्य का चाक्षुषप्रत्यक्ष हो भी नहीं सकता । यह भी सम्भव नहीं है कि अवयवों के ही रूप अवयवी में सम्मिलित होकर चित्रबुद्धि से प्रतीत होते हैं, एवं उसी चित्र रूप से अवयवी का भी प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि इस प्रकार की कल्पना से तो सभी अवयवी की यही दशा होगी, फलत: अवयवियों से रूप की सत्ता ही उठ जाएगी । तस्मात् अवयवों