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न्यायकन्दली
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तपादभाष्यम्
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न्यायकन्दली
वयवा आरभेरन् शरीरं वा तत्सहकृतम्, उभयथापि पटादिषु तन्त्वादिवदन्ते होनाधिकपरिमाणवदनेकशरीरोपलम्भः स्यात्, न चैवम्, तस्मात् पूर्व प्रनष्टमपरञ्च शरीरमुपजातम् । विवादाध्यासिते परिमाणे भिन्नाश्रये, हीनाधिकपरिमाणत्वात्, घटशरावपरिमाणवत्, विवादाध्यासितं परिमाणमाश्रयविनाशादेव विनश्यति परिमाणत्वात् मुद्गराभिहतविनष्टघटपरिमाणवत् । प्रत्यभिज्ञानाच्छरीरंकत्वसिद्धिरिति चेत् ? न तस्य सादृश्यविषयत्वेनाप्युपपत्तेः । व्यक्तीनामव्यवधानोत्पादनेनान्तराग्रहणस्यात्यन्तिकसादृश्यस्य च भ्रान्तिहेतोः सर्वदा सम्भवे ज्वालादिव्यक्तिवन्दं तदिति बाधकानुदयेऽपि युक्तिद्वारेण बाधकसम्भवात् ।
[ द्रव्ये पृथिवी
तस्य प्रकारं दर्शयति - द्विविधमिति । द्वे विधे प्रकारौ यस्य तद् द्विविधमिति व्याख्या । जरायुरिति गर्भाशयस्याभिधानम्, तेन वेष्टितं जायत इति
'द्विविधम्' इत्यादि से योनिज शरीर का भेद तद् द्विविधम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस वस्तु के का अर्थ है । 'जरायु' शब्द का अर्थ है गर्भाशय,
(मोटे और पतले ) दोनों उन दोनों में घड़े और
से सहकृत शरीर ही ? दोनों ही प्रकार से यह अनुपपन्न है, क्योंकि स्वल्प परिमाण के अवयवों से आरब्ध पट और उससे अधिक परिमाणवाले अवयवों से आरब्ध घट दोनों की उपलब्धि एक समय में हो सकती है. उसी प्रकार एक ही व्यक्ति में एक ही समय में मोटे और पतले दोनों शरीरों की उपलब्धि होनी चाहिए, किन्तु होती नहीं है, अतः ऐसे स्थलों में एक शरीर का नाश और दूसरे शरीर की उत्पत्ति माननी ही पड़ेगी । (उक्त विषय के साधक अनुमान ये हैं कि ) (१) विवाद के विषय शरीरों के परिमाण दो विभिन्न व्यक्तियों में रहते हैं, क्योंकि पुरवे के परिमाणों की तरह एक न्यून है, दूसरा अधिक । (२) परिमाण मुद्गर से विनष्ट घट के परिमाण की तरह आश्रय के नष्ट होते हैं, क्योंकि ये भी ( जन्य ) परिमाण हैं, (प्र०) एक ही पतले दोनों शरीरों में परस्पर यह प्रत्यभिज्ञा होती है कि मैंने पहिले देखा था उसी को अभी देख रहा हूँ । इसी प्रत्यभिज्ञा से दोनों शरीरों में एकत्व की सिद्धि करेंगे | ( उ० ) दो सदृश व्यक्तियों में भी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है. जैसे कि दीपशिखाओं में । यह और बात है कि दीपशिखाओं के एकत्व का बाधक अत्यन्त परिस्फुट होने के कारण उस प्रत्यभिज्ञा में अयथार्थत्व शीघ्र गृहीत हो जाता है, शरीर बिना व्यवधान के बराबर उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, अतः व्यवधान का अज्ञान और अत्यन्त सादृश्य ये दोनों भ्रान्ति रूप प्रत्यभिज्ञा के कारण बराबर रहते हैं, किन्तु युक्ति के द्वारा विचार करने पर विलम्ब से ही सही उस प्रत्यभिज्ञा का बाध अवश्य होता है ।
'जिसको
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विवाद के विषय ये
नष्ट होने पर ही व्यक्ति के मोटे और
दिखलाते हैं । 'द्वे विधे प्रकारौ यस्य दो प्रकार हों वही 'द्विविध' शब्द उससे वेष्टित होकर जन्म होने के