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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
मित्युच्यते । पितुः शुक्रं मातुः शोणितं तयोः सन्निपातानन्तरं जठरानलसम्बन्धाच्छुकशोणितारम्भकेषु परमाणुषु पूर्वरूपादिविनाशे सति समानगुणान्तरोत्पत्तौ द्वचणुकादिप्रक्रमेण कललशरीरोत्पत्तिस्तत्रान्तःकरणप्रवेशो न तु शुक्रशोणितावस्थायाम्, शरीराश्रयत्वान्मनसः । तत्र मातुराहाररसो मात्रया संकामति, अदृष्टवशात् । तत्र पुनर्जठरानलसम्बन्धात् कललारम्भकपरमाणुः क्रियाविभागादिन्यायेन कललशरीरे नष्टे समुत्पन्नपाकजैः कललारम्भकपरमाणुभिरदृष्टवशादुपजातक्रियैराहारपरमाणुभिः सह सम्भूय शरीरान्तरमारभ्यत इत्येषा कल्पना शरीरे प्रत्यहं द्रष्टव्या । शरीरभेदे कि प्रमाणम् ? परिमाणभेदः, स्वल्पपरिमाणावच्छिन्ने आश्रये महत्परिमाणस्य परिसमाप्त्यभावात् । अवस्थान्तरापन्नं शरीरं तदाश्रयो भवतीति चेत् ? अवस्थान्तरमाहारावयवसहकारिणः शरीरा
पिता का शुक्र एवं माता का शोणित इन दोनों के मेल के बाद माता के उदर सम्बन्धी तेज से शुक्र के और शोणित के आरम्भक परमाणुओं के पहिले के रूपादि का नाश एवं दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। परिवर्तित रूपादि से युक्त इस शुक्र और शोणित के परमाणुओं से कलल' नाम के शरीर की उत्पत्ति होती है । इस शरीर में ही मन का सम्बन्ध होता है, शुक्रशोणितावस्था में नहीं, क्योंकि मन शरीर में ही रह सकता है । उस शरीर में माता से खायी हुई वस्तुओं के रस का कुछ अंश सम्बद्ध होता है । ' अदृष्टवश उस 'कलल' नामक शरीर के आरम्भक परमाणुओं में क्रिया होती है, फिर विभाग होता है। इस प्रकार द्रव्य नाश के कथित क्रम से उस कलल शरीर का नाश हो जाता है। इस नाश के बाद कलल के आरम्भक परमाणुओं के पहिले रूपादि का उसी तेज के संयोग से नाश होता है और दूसरे रूपादि की उत्पत्ति होती है। पाकज रूपादि से युक्त कलल के आरम्भक ये परमाणु, अदृष्ट से उत्पन्न क्रिया से युक्त ( माता के ) आहार के परमाणुओं से मिलकर दूसरे शरीर को उत्पन्न करते हैं। शरीर के नाश और शरीरान्तर की उत्पत्ति की यह प्रक्रिया प्रतिदिन चलती है। अभिप्राय यह है कि अवस्था की वृद्धि के साथ हाथ पैर प्रभृति अङ्गों की लम्बाई चौड़ाई कुछ हद तक बढ़ती है, या शरीर ही कुछ दुबला पतला होता ही रहता है। यह ह्रास और वृद्धि पहिले शरीर के नाश के बाद अभिनव शरीर की उत्पत्ति मानने पर ही सम्भव है। इसी विषय को प्रश्नोत्तर रूप से समझाते हैं । (प्र.) एक ही व्यक्ति के भिन्न भिन्न शरीर मानने में क्या प्रमाण है ? (उ०) परिमाण का भेद (ही प्रमाण है) । अल्प परिमाण के द्रव्य में उस से बड़े परिमाण का समावेश नहीं हो सकता। (प्र.) वही शरीर दूसरी अवस्था पाकर उस बड़े परिमाण का आश्रय होगा। (उ०) इस दूसरी अवस्था का उत्पादक कौन है ? आहार के अवयवों से साहाय्यप्राप्त शरीर के ही अवयव ? या आहार के अवयवों
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