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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
तदसाधीयः, यथाकाशं श्रोत्रं नैवं योगो द्रव्यस्य लक्षणम्, किन्तु द्रव्यत्वमेव, तत्त्वसम्बद्धं लक्षणं न स्यादिति योगसङ्कीर्तनं लिङ्गस्य धर्मिण्यस्तित्वकथनम्। तथा चैवं प्रयोगः-पृथिव्यादिकमितरेभ्यो भिद्यते द्रव्यत्वात्, येषामितरेभ्यो भेदो नास्ति तेषां द्रव्यत्वमपि नास्ति, यथा रूपादीनामिति । तस्मादसच्चोद्यमसदुत्तरञ्च ।
अन्यदपि द्रव्याणां साधर्म्यमाह--स्वात्मन्यारम्भकत्वमिति, स्वसमवेतकार्यजनकत्वमित्यर्थः। गुणवत्त्वं गुणैः सह सम्बन्धः। एतदप्युभयं गुणादिभ्यो द्रव्याणां वैधय॑मन्यत्रासम्भवात् । कार्यकारणाविरोधित्वम् । गुणो हि क्वचित् कार्येण विनाश्यते, यथा आद्यः शब्दो द्वितीयशब्देन । क्वचित् कारणेन विनाश्यते, यथा अन्त्यः शब्द उपान्त्यशब्देन । कर्मापि कार्येण विनाश्यते, यथोत्तरसंयोगेन। द्रव्याणि तु न कार्येण विनाश्यन्ते नापि कारणेनेति कार्यकारणाविरोधीनि । नित्यानां कारणविनाशयोरभावादेव कारणेनाविनाशः,
उसी प्रकार प्रकृत में 'योग' अर्थात् द्रव्यत्व का समवाय रूप सम्बन्ध ही द्रव्यों का साधर्म्य या लक्षण नहीं है, किन्तु द्रव्यत्व ही द्रव्यों का लक्षण है। यह द्रव्यत्व बिना किसी असाधारण सम्बन्ध के लक्षण नहीं हो सकता, अतः ‘योग शब्द का उल्लेख है । अर्थात् इस 'योग' शब्द से (इतर भेदानुमिति के पक्ष रूप) धर्मी में (उस अनुमिति के लक्षण रूप) हेतु का अस्तित्व दिखलाया गया है। इससे अनुमान का यह रूप फलित होता है कि पृथिव्यादि नौ पदार्थ गृणादि और पदार्थों से भिन्न हैं, क्योंकि इनमें द्रव्य त्व है। जिनमें यह इतरभेद नहीं है, उनमें द्रव्यत्व भी नहीं है । अतः उक्त आक्षेप और उसका समाधान दोनों ही अशुद्ध हैं।
'स्मात्मन्यारम्भकत्यम्' इत्यादि से द्रव्यों का और भी साधर्म्य कहते हैं, अर्थात् अपने में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले कार्यों का कारणत्व भी द्रव्यों का साधर्म्य है। 'गुणवत्त्व' शब्द का अर्थ है गुण के साथ सम्बन्ध, ये दोनों ही गुणादि पदार्थों से द्रव्यों में असाधारण्य के सम्पादक हैं, क्योंकि द्रव्य से भिन्न किसी भी पदार्थ में इन दोनों की सम्भावना नहीं है । “कार्यकारणाविरोधित्वम्" गुण कहीं अपने कार्य से ही नष्ट होता है, जैसे कि पहिला शब्द दूसरे शब्द से, कहीं वह अपने कारण से भी नष्ट होता है, जैसे कि अन्तिम शब्द अपने अव्यवहितपूर्व के शब्द से । क्रिया भी अपने कार्य से नष्ट होती है, जैसे कि उत्तर देश के संयोग से; द्रव्य न अपने कार्यों से नष्ट होते हैं, न कारणों से ही, अतः द्रव्य कार्य और कारण दोनों के अविरोधी हैं। नित्य द्रव्यों का न कोई कारण हैं, न उनका विनाश ही होता है, अतः उनका विनाश कार्य और कारण किसी से भी नहीं होता है। अनित्य द्रव्यों का विनाश भी होता है, एवं उनके कारण भी होते हैं, किन्तु उनका विनाश अपने कारणों
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