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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
वेगवत्वानि । परत्व, अपरत्व और वेगवत्त्व ये पाँच साधर्म्य हैं ।
न्यायकन्दली क्षितिजलज्योतिरनिलमनसां क्रियावत्त्वमूर्त्तत्वपरत्वापरत्ववेगवत्त्वानोति । क्रियावत्त्वमुत्क्षेपणादिक्रियायोगः । मूर्त्तत्वमवच्छिन्नपरिमाणयोगित्त्वम् । परत्वापरत्ववेगवत्त्वानि परत्वापरत्ववेगसमवायः।
संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वयोरेव परापरव्यवहारहेतुत्वात् परत्वापरत्वे न स्त इति केचित्, न, भिन्नदिक्सम्बन्धिनोः सत्यपि संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्वभूयस्त्वसद्भावे सत्यपि च द्रष्टुः शरीरापेक्षया सन्निकृष्टविप्रकृष्टबुद्धयोरुत्पादे
क्रिया, मूतत्व, परत्व, अपरत्व, और वेग ये पाँच पृथिवी. जल, तेज, वायु और मन इन पाँच द्रव्यों के साधर्म्य हैं। 'क्रियावत्व' शब्द का अर्थ है उत्क्षेपणादि क्रियाओं का सम्बन्ध । मूर्तत्व शब्द का अर्थ है किसी अल्प परिमाण का सम्बन्ध । परत्व, अपरत्व और वेग इन तीनों का समवाय ही परत्वापरत्ववेगवत्व' शब्द का अर्थ है ।
(प्र०) कुछ आचार्यों का कहना है कि परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण नहीं हैं । पाटलिपुत्र से काशौ की अपेक्षा प्रयाग 'पर' (दूर) है, एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग की अपेक्षा काशौ 'अपर' (समीप) है, इसी प्रकार की प्रतीतियों से तो दैशिक परत्व और अपरत्व स्वीकार किये जाते हैं । किन्तु यह 'परत्व' और 'अपरत्व' दूरत्व और समीपत्व को छोड़कर और कुछ नहीं है। एवं परत्व और अपरत्व इन प्रतीतियों से भी स्वीकार किये जाते हैं कि देवदत्त यज्ञदत्त से 'पर' है, एवं यज्ञदत्त दे दत्त से 'अपर' है, यह (कालकृत) परत्व और अपरत्व ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व के ही दूसरे नाम हैं। किन्तु इन व्यवहारों के लिए परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुणों की कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि दूरत्व और समीपत्व रूप परत्व और अपरत्व के व्यवहार का नियामक देश के साथ संयोग की अधिकता और न्यूनता ही है। यह स्वीकार करना हो होगा कि पाटलिपुत्र से काशी में जितने दिग्देशों का सम्बन्ध है उससे प्रयाग में अधिक है । एवं पाटलिपुत्र से प्रयाग में जितने दिग्देशों का संयोग है उससे काशी में अल्प है। इसी प्रकार ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व रूप परत्व एवं अपरत्व का व्यवहार भी सूर्य की अधिक क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध और सूर्य की अल्प क्रिया से युक्त काल के सम्बन्ध से ही होता है। सुत राम् सूर्य क्रियाओं की अधिकता और अल्पता से ही (कालिक) परत्वापरत्व के व्यवहार की उपपत्ति होगी। इन प्रतीतियों के लिए परत्व और अपरत्व नाम के स्वतन्त्र गुण की कल्पना आवश्यक नहीं है । (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार से तो परस्पर विरुद्ध दो दिशाओं
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