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[साधम्यंवैधयं
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
पृथिव्यादिष्वेकशब्दप्रवृत्तिरक्षशब्दवत्, यथा देवनत्वेन्द्रियत्वबिभीतकत्वसामान्यत्रययोगाद्देवनादिष्वक्षशब्दः सङ्केतितः, तथा पृथिवीत्वादिसामान्यवशात् पृथिव्यादिषु चतुर्षु भूतशब्दः सङ्केतितः । आकाशे तु व्यक्तिनिमित्त एव भूतं भूतमिति तच्छब्दानुविद्धः प्रत्ययस्तच्छब्दवाच्यतोपाधिकृतः, यथा देवनादिष्वेकोऽक्ष इति प्रत्ययः।
इन्द्रियप्रकृतित्वमिन्द्रियस्वभावत्वम् । न भूतस्वभावानीन्द्रियाणि, अप्राप्यकारित्वात्, प्राप्यकारित्वं हि भौतिको धर्मो यथा प्रदीपस्येति केचित् । तदयुक्तम्, व्यवहितानुपलब्धेः, यदीन्द्रियमप्राप्यकारि कुड्यादिव्यवहितमप्यर्थ गृह्णीयादप्राप्तेरविशेषात् । योग्यताभावाद् व्यवहितार्थाग्रहणमिति चेत् ? इन्द्रियस्य तावद् योग्यता विषयग्रहणसाममिस्त्येव तदानीमव्यवहितार्थग्रहणात्, विषयस्यापि योग्यता
की तरह 'भूत' शब्द की प्रवृत्ति उनमें होती है । अर्थात् जैसे देवनत्व (द्यूतत्व) इन्द्रियत्व और विभीतकत्व इन तीन सामान्य के सम्बन्ध से जूये प्रभृति में 'अक्ष' शब्द की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही पृथिवीत्यादि चारों जातियों से पृथिवी जल, तेज और वायु इन चार द्रव्यों को समझाने के लिए 'भूत' शब्द प्रवृत्त होता है। आकाश में आकाश रूप व्यक्तिमूलक 'यह भूत है' इत्यादि 'भूत' शब्दमूलि का प्रतीति भूत शब्दबोध्यत्व रूप उपाधि से होती है। जैसे कि एक ही 'अक्ष' शब्द देवनादि सभी अर्थों को समझाने के लिए प्रवृत्त होता है।
'इन्द्रिय प्रकृतित्व' शब्द का अर्थ है इन्द्रियस्वभावत्व । यहाँ कोई शङ्का उठाते हैं कि (प्र०) भूत इन्द्रियों की प्रकृति (समवायिकारण) नहीं है, क्योंकि इन्द्रियाँ वस्तुओं के साथ असम्बद्ध होकर ही अपना काम करती हैं । भौतिक वस्तुओं का यही स्वभाव है कि अपने विषयों के साथ सम्बद्ध होकर ही अपना काम करें, जैसे कि प्रदीप । (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि व्यवहित वस्तुओं की इन्द्रियों से उपलब्धि नहीं होती। अगर इन्द्रियाँ अपने से असम्बद्ध विषयों को भी ग्रहण करें तो फिर दीवाल प्रभृति से ढके हुए अपने विषयों का भी वे ग्रहण कर सकती हैं। दीवाल से घिरे और न घिरे हुए वस्तुओं में तो कोई अन्तर नहीं है, और इन्द्रियों की असम्बद्धता तो दोनों प्रकार की वस्तुओं में समान है। (प्र.) व्यवहित वस्तुओं में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है, अतः उनका प्रत्यक्ष नहीं होता है ? (उ०) इस प्रसङ्ग में पूछना है कि व्यवहित विषयों में प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है ? या इन्द्रियों में व्यवहित विषयों के प्रत्यक्ष के उत्पादन की योग्यता नहीं है ? इन्द्रियों की योग्यता है विषयों को ग्रहण करने का सामर्थ्य, सो उनमें है ही। क्योंकि उस समय भी अन्यवहित विषयों को वे ग्रहण करती
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