________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्दली
परीक्षाविधिरधिक्रियते । यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चयः स्यात्, तत्रायं व्यर्थो नार्थ्यते । योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति, तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा, तत् कस्य हेतोः ? लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्त इति । एवञ्चेदर्थप्रतीत्यनुरोधाच्छास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिधैव । नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणं विचार: परीक्षा। उद्दिष्टविभागस्तु न विधान्तरम्, उद्देशलक्षणेनैव संगृहीतत्वात् । तथा हि पृथगुच्येत। एतान्येवेति नियमार्थं विशेषलक्षणप्रवृत्त्यर्थश्च विभक्तेषु पदार्थेषु तेषां विशेषलक्षणानि भवन्ति, अन्यथा तानि निविषयाणि स्युः। तत्र द्रव्याणि द्रव्यगुणकर्मेत्युद्दिष्टानि पृथिव्यप्तेज इति विभक्तानि । सम्प्रति तेषां विशेषलक्षणार्थं प्रकरणमारभ्यते।
बाद विरुद्ध मत के उपस्थित होने के कारण पदार्थों का तत्त्व ज्ञात नहीं होने पाता, वहीं विरुद्ध मत को खण्डित करने के लिए परीक्षा आरम्भ की जाती है। किन्तु जहाँ लक्षण के कहने से ही वस्तुओं का तत्त्वज्ञान हो जाता है, वहाँ व्यर्थ होने के कारण परीक्षा अपेक्षित नहीं होती है । जो कोई (न्यायभाष्यकार वात्स्यायन) शास्त्रों की प्रवृत्ति को (१) उद्देश, (२) लक्षण और (३) परीक्षा भेद से नियमतः तीन प्रकार का मानते हैं, उनके शास्त्र में भी प्रयोजनादि पदार्थों की परीक्षा नहीं है। इसका क्या कारण है ? यही कि वे लक्षण कहने मात्र से तत्त्वतः ज्ञात हो जाते हैं। अगर प्रतीति के अनुरोध से ही शास्त्रों की प्रवृत्ति होती है तो फिर वह नियम से तीन ही प्रकार की नहीं होती है (अधिक भी हो सकती है और अस्प भी) पदार्थों को केवल उनके नामों से निर्दिष्ट करना 'उद्देश' हैं । उद्दिष्ट पदार्थ को अपने से भिन्न सजातीय और विजातीय पदार्थों से भिन्न रूप से समझानेवाला धर्म ही 'लक्षण' है। लक्षण के द्वारा समझाये गये वस्तु का लक्षण के अनुसार विचार ही परीक्षा' है। 'उद्दिष्ट लक्षण' नाम की शास्त्र की कोई अलग प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि कथित उद्देश के लक्षण से ही वह गतार्थ हो जाता है। "उद्दिष्ट विभाग' नाम की अलग शास्त्र की प्रवृत्ति (१) 'पदार्थ इतने ही हैं। इस नियम के लिए या (२) विशेष लक्षणों की प्रवृत्ति के लिए इन्हीं दो प्रयोजनों से मानी जा सकती थी, क्योंकि विभाग किये हुए पदार्थों के ही विशेष लक्षण होते हैं । अगर ऐसा न हो तो फिर इन विशेष लक्षणों का कोई विषय ही नहीं रहेगा । यहाँ द्रव्यगुणेत्यादि ग्रन्थ से द्रव्यों का उद्देश हो गया है एवं 'पृथिव्यप्तेज' इत्यादि ग्रन्थ से वे विभक्त हुए हैं। अब द्रव्यों के विशेष लक्षण के लिए आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।
For Private And Personal