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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
सामान्यादीनां त्रयाणां स्वात्मसत्वं बुद्धिलक्षणत्वमकार्यत्वमकारणत्वमसामान्यविशेषवत्वं नित्यत्वमर्थशब्दानभिधेयत्वश्चेति ।
सामान्य प्रभृति तीन पदार्थों का अर्थात् सामान्य, विशेष, और समवाय इन तीन पदार्थों का 'स्वात्मसत्त्व' अर्थात् सत्ता जाति के बिना सत्ता, बुद्धिलक्षणत्व, अकार्यत्व, अकारणत्व, असामान्यविशेषवत्त्व, नित्यत्व और 'अर्थ' शब्द का अभिधेय न होना ये सात साधर्म्य हैं ।
न्यायकन्दली
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જા
सम्प्रति सामान्यादीनां साधर्म्यमाह - सामान्यादीनामिति । स्वात्मैव सत्त्वं स्वरूपं यत्सामान्यादीनां तदेव तेषां सत्त्वम्, न सत्तायोगः सत्त्वम् । एतेन सामान्यादीनां त्रयाणां सामान्यरहितत्वं साधर्म्य मुक्तमित्यर्थः । कथमेतत् ? बाधकसद्भावात्, सामान्ये सत्ता नास्ति, अनिष्टप्रसङ्गात् । विशेषेष्वपि सामान्यसद्भावे संशयस्यापि सम्भवात् । निर्णयार्थं विशेषानुसरणेऽप्यनवस्थैव । समवायेऽपि सत्ताभ्युपगमे तद्वृत्त्यर्थं समवायाभ्युपगमादनिष्टापत्तिरेव दूषणम् । गोत्वादिष्वपरजातिमत्त्वेन व्याप्तस्य सत्तासम्बन्धस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तिसिद्धिः । कुतस्तहि सामान्यादिषु सत्सदित्यनुगमः ? स्वरूप सत्त्वसाधर्म्येण सत्ताध्यारो
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द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहकर अब 'सामान्यादीनाम्' इत्यादि से सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कहते हैं । अर्थात् सामान्यादि का 'आत्मा' अर्थात् स्वरूप ही 'सत्त्व' है । (द्रव्यादि तीनों की तरह) सत्ता जाति का सम्बन्ध उनकी 'सत्ता' नहीं है । इससे सत्ता जाति से रहित होना सामान्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य कथित होता है । ( प्र ० ) सामान्यादि में सत्ता क्यों नहीं है ? ( उ० ) सामान्यादि तीन पदार्थों में सत्ता मानने में यह बाधा है कि इससे 'अनवस्था' होगी । विशेषों में भी अगर सामान्य की सत्ता मानें तो वहीं संशय हो सकता है कि ये विशेष एकजातीय हैं या विभिन्न जातीय ? और तब फिर सभी नित्य द्रव्यों में यह संशय होगा । निश्चय करने के लिए अगर और विशेष निश्चयों के पीछे दौड़ेंगे तो अनवस्था होगी। समवाय में अगर सत्ता जाति मानेंगे तो उसके सम्बन्ध के लिये दूसरे समवाय की कल्पना करनी पड़ेगी । इस प्रकार इसमें भी अनवस्था होगी । और भी बात है, जहाँ जहाँ सत्ता जाति रहती है, उन सभी स्थानों में गोत्वादि अपर जातियों में से भी कोई जाति अवश्य ही रहती है । सत्ता और गोवादि अपर जातियों की यह व्याप्ति गोप्रभृति वस्तुओं में सिद्ध है । सामान्यादि में कोई भी अपरजाति नहीं है अतः सत्ता जाति भी उनमें नहीं है । (प्र०) फिर सामान्यादि में 'ये सत् हैं' इस प्रकार की प्रतीति क्यों होती है ? ( उ० ) सामान्यादि में रहनेवाली 'स्वरूपसत्ता' और सत्ता जाति इन दोनों के सादृश्य से सामान्यादि पदार्थों में सत्ता जाति का आरोप
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