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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली धारणसंज्ञया पृथिव्यप्तेजस्त्वादिरूपया उक्तानि सूत्रकारेण प्रतिपादितानि । किमेतावन्त्याहोस्विदपराण्यपि सन्तीत्याह नवैवेति । ननु नवानां लक्षणाभिधाने सामर्थ्यादपरेषामभावो ज्ञातव्यः, व्यर्थं नवैवेति । न, नवसु लक्षितेषु किमपरेषामसत्त्वादुत सतामप्यनुपयोगित्वान्न लक्षणं कृतमिति संशयो न निवर्तेत । लक्षणस्य व्यवहारमात्रसारतया समानासमानजातीयव्यवच्छेदमात्रसाधनत्वेन चान्याभावप्रतिपादिनासामर्थ्यात्, तदर्थमवधारणं कृतम् । इदमेव सामान्योद्दिष्टानां विशेषसंज्ञाभिधानं तन्त्रान्तरे विभाग इति निर्देश इति च कथ्यते। कथमेतदवगतं नवैवेति ? अत आह-तद्वयतिरेकेणेत्यादि। तेभ्यो नवभ्यो व्यतिरेकेण सर्वज्ञेन महर्षिणा सर्वार्थोपदेशाय प्रवृत्तेनान्यस्य संज्ञानभिधानात् ।
तमो नाम रूप-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-परत्वापरत्व-संयोग-विभागवद् द्रव्यान्तरमस्तीति चेत् ? अत्रकश्चिदाह-यदि तमो द्रव्यम्, रूपवद्रव्यस्य स्पर्शाव्यभितेजस्त्वादि विशेषरूप से सूत्रकार ने द्रव्यों का प्रतिपादन किया है । (प्र० ) नौ प्रकार के द्रव्यों का लक्षण कह देने भर से सामर्थ्यवश यह ज्ञात हो ही जाएगा कि नौ से अधिक द्रब्य नहीं हैं, अतः (अवधारणार्थक) 'नवैव' शब्द का प्रयोग व्यर्थ है । ( उ० ) उक्त प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि नौ द्रव्यों का केवल लक्षण कह देने भर से यह सन्देह रह ही जाता है-"नौ द्रव्यों का ही लक्षण इस लिए किया गया है कि नौ से अधिक द्रव्यों की सत्ता ही नहीं है ?" या "नौ से अधिक भी द्रव्य हैं, किन्तु प्रकृत में उनका कोई उपयोग नहीं है । अतः केवल नौ ही (उपयोगी) द्रव्य के लक्षण कहे गये हैं।" लक्ष्य का व्यवहार ही लक्षण का मुख्य प्रयोजन है । अतः लक्षणवाक्य केवल (व्यवहार के लिए) अपने लक्ष्यों को उनके सजातीय और विजातीय वस्तुओं के भिन्न रूप में केवल समझा सकते हैं। उनमें ( अवधारणादि ) किसी और अर्थ को समझाने की क्षमता नहीं है। अतः ( अवधारणार्थक ) 'एव' शब्दघटित 'नवैव' शब्द का प्रयोग ( भाष्य ) में है । सामान्य नामों से कहे हुए पदार्थों का विशेष नामों से यह कथन हा और शास्त्रों में 'विभाग' और 'निर्देश' शब्द से कहा गया है । यह कैसे समझा गया है कि नौ से अधिक द्रव्य नहीं है ? इसी प्रश्न का समाधान 'तद्वयतिरेकेणान्यस्य" इत्यादि सन्दर्भ से कहते हैं। अभिप्राय यह है कि सभी पदार्थों का उपदेश करने के लिये प्रवृत्त सर्वज्ञ महर्षि (कणाद) ने इन नौ द्रव्यों से भिन्न किसी का भी उल्लेख द्रव्य नाम से नहीं किया है।
(प्र०) रूप, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, संयोग' और विभाग, के पहिले भी 'के गुणाः' इत्यादि प्रश्न वाक्यों का ऊह करना चाहिए। अन्यथा उत्तररूप सभी विभागवाक्य विना आकाङ्क्षा के ही कहे जाने के कारण उपेक्ष्य हो जायेंगे ।
१. अभिप्राय यह है कि द्रव्य का सामान्यलक्षण गुण ही है। अन्धकार में कथित रूपादि आठ गुणों की उपलब्धि सार्वजनीन है । अतः वह द्रव्य अवश्य है, किन्तु कथित पृथिव्यादि नौ
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