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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली यथा हि सुविदितरत्नपरीक्षाशास्त्रो रत्नजातिभेदं प्रत्यक्षतः प्रत्येति, नापरः । न च तावता रत्नजातिभेदो नास्ति, न च तत्प्रत्यक्षमप्रत्यक्षम् । यच्चोक्तम्-स्त्रीणां स्वभावचपलानां विशुद्धिर्दुरवबोधैवेति । तदसत्, अभियुक्तैः सुरक्षितानां सुकरस्तदवबोधः, कथितश्च तासां बहुविधो रक्षणोपाय इत्यास्तां तावत्प्रसक्तानुप्रसङ्गः। ___तच्च द्रव्यत्वादिकं स्वविषयस्य विजातीयेभ्यो व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषाख्यां विशेषसंज्ञामपि लभते, न केवलमनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यसंज्ञां लभते, व्यावृत्तेरपि हेतुत्वाद्विशेषसंज्ञामपि लभत इत्यपिशब्दयोरर्थः । किमुक्तं स्यात् ? द्रव्यत्वादिषु सामान्यशब्दो मुख्यः, अनुवृत्तिहेतुत्वस्य सामान्यलक्षणस्य सम्भवात्, विशेषशब्दश्च भाक्तः, स्वाश्रयो विशिष्यते सर्वतो व्यवच्छिद्यते येन स विशेष इति लक्षणस्यात्राभावात् । इदन्तु लक्षणमन्त्यविशेषेष्वस्ति । केवल प्रथम दर्शन में ही क्षत्रियादि व्यक्तियों से विलक्षण रूप से ब्राह्मणों की प्रतीति नहीं होती है । क्योंकि ब्राह्मणत्व जाति व्यक्ति में सम्बद्ध रहने पर भी उद्भूत नहीं है । जब यह ज्ञान हो जाता है कि यह व्यक्ति ब्राह्मण माता पिता से उत्पन्न है, तब उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष के साथ ही ब्राह्मणत्व जाति का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे कि रत्नों की परीक्षा में निपुण व्यक्ति रत्नों की जातियों को प्रत्यक्ष ही देखता है । एवं उस परीक्षा से अनभिज्ञ व्यक्ति रत्नों की जातियों को समझाने पर भी नहीं समझ पाता है। किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि रत्नों की भिन्न जातियाँ ही नहीं हैं या उस निपुण पुरुष का प्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ही नहीं है । (प्र.) कोई कहते हैं कि स्त्रियाँ चञ्चल होती हैं, अत: तन्मूलक वंशविशुद्धि का ज्ञान दुर्लभ है। (उ०) किन्तु यह सर्वथा असङ्गत है, क्योंकि आर्यों से सुरक्षित स्त्रियों की सन्तानों में विशुद्धि का बोध कठिन नहीं है । स्त्रियों की रक्षा के बहुत से उपाय शास्त्रों में कहे गये हैं। अब इस प्रसङ्ग से आये विषय को यहीं छोड़ देना चाहिये ।
द्रव्यत्वादि जातियां अपने आश्रयों को भिन्नजातीय वस्तुओं से पृथक् रूप से भी समझाती हैं, अतः वे 'विशेष' नाम से भी कही जाती हैं। अपने विभिन्न आश्रयों में एकाकारप्रतीतिरूप अनुवृत्तिप्रत्यय-जनक होने से केवल 'सामान्य' शब्द से ही व्यवहत नहीं होती हैं। यही दोनों (व्यावृत्तेरपि विशेषाख्यामपि) 'अपि' शब्दों का अभिप्राय है। इससे निष्कर्ष क्या निकला ? यही कि द्रव्यत्वादि जातियाँ 'सामान्य' शब्द के मुख्य अर्थ हैं। क्योंकि "अनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्व" रूप सामान्य का सम्पूर्ण लक्षण उनमें है । विशेष' शब्द का उनमें लाक्षणिक प्रयोग होता है, क्योंकि "जो अपने आश्रय व्यक्ति को और सभी पदार्थों से भिन्न रूप से समझावे वही 'विशेष' है", विशेष का यह सम्पूर्ण लक्षण उनमे नहीं है, किन्तु वह अन्त्य विशेषों में (ही) है ।
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