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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३६
अथात सिद्ध, तथापि कः सम्बन्धोऽपृथक् सिद्धत्वादेव । भिन्नयोहि सम्बन्धो यथा कुण्डबदरयोरिति ।
तदपरे न मृषन्ति । नह्यस्यायमर्थो युतौ न सिद्धौ न निष्पन्नाविति, असतो: समवायानभ्युपगमात् । नाप्यस्यायमर्थः - अयुतौ सिद्धाविति, एकात्मकत्वे ह्येकमेव वस्तु स्यान्नोभयम्, परस्परात्मकत्वाभावलक्षणत्वादुभयरूपतायाः । न च तदेकं वस्तु परमार्थतः परस्परविलक्षणेन रूपेण तयोराकारयोः प्रतिभासनात् । विलक्षणाकार बुद्धिवेद्यत्वस्यैव भेदलक्षणत्वात्, अन्यथा भेदाभेदव्यवस्थानुपपत्तेः । तस्मान्न स्वरूपाभेदोऽप्ययुतसिद्धिः, किन्तु अयुत सिद्धानामिति परस्परपरिहारेण पृथगाश्रयानाश्रितानामित्यर्थः । तथा च सति सम्बन्धो नानुपपन्नः, स्वरूपभेदस्य सम्भवात्, भिन्नयोश्च परस्परोपश्लेषस्य दहनाय : पिण्डयोरिव विना सम्बन्धेनासम्भवात् । इयांस्तु विशेष : -- वह्निरुत्पत्तेः पश्चादयःपिण्डेन सह सम्बद्ध्यते, इह तु स्वकारणसामर्थ्यादुपजायमानमेव तत्र सम्बद्धयते, यथा छिदिक्रिया छेद्येनेत्यलम् ।
किसके साथ किसका होगा ? ( क्योंकि सम्बन्ध से पहिले सम्बन्धियों की सिद्धि आवश्यक है), अगर " जिन दोनों की पृथक् सिद्धि न हो वे अयुतसिद्ध हैं' यह दूसरा पक्ष मानें तो भी असङ्गति है ही क्योंकि जिन दो वस्तुओं की अलग अलग सिद्धि न हो, पृथक् सत्ता न रहे, उन दोनों का सम्बन्ध कैसा ? दो भिन्न वस्तुओं का ही सम्बन्ध होता है, जैसे कुण्ड और बैर का ।
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इन दोनों ही आक्षेपों को दूसरे सम्प्रदाय नहीं मानते। इन लोगों का कहना है कि ' युतो न सिद्धौ” इस विग्रह वाक्य का यह अर्थ नहीं है कि "जिन दो वस्तुओं की (पृथक् ) सत्ता न रहे, वे प्रयुतसिद्ध हैं", क्योंकि हम लोग असत् वस्तुओं का समवाय नहीं मानते । " अयुतौ न सिद्धौ” इस विग्रहवाक्य के अनुसार यह अर्थ भी नहीं है कि * जिन दो वस्तुओं की अभिन्नरूप से सिद्धि हो वे अयुतसिद्ध हैं", क्योंकि एक स्वरूप की वस्तु एक ही होगी, दो नहीं । दो वस्तुओं के दोनों असाधारण धम्मों का एक दूसरे में अभाव ही 'उभयरूपत्व' शब्द का अर्थ है । समवाय सम्बन्ध के अनुयोगी और प्रतियोगीरूप वे दोनों अयुतसिद्ध अभिन्न भी नहीं हैं, क्योंकि परस्पर विलक्षण रूप से दोनों की यथार्थ प्रतीति होती है । विलक्षण रूप से ज्ञात होना ही वस्तुओं का (परस्पर) भेद है । अगर विलक्षण रूप से ज्ञात होने पर भी वस्तुओं में भेद न मानें तो संसार से भेद और अभेद की बात ही उठ जाएगी । अयुत सिद्ध शब्द का अर्थ यह है कि जो अनेक वस्तुएँ परस्पर एक दूसरे को छोड़कर न रहें वे 'अयुत सिद्ध' हैं । (अयुत सिद्ध शब्द के ) इस प्रकार के अर्थ में सम्बन्ध की कोई अनुपपत्ति नहीं है । क्योंकि इस प्रकार के अयुतसिद्धों के स्वरूप