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न्यायकन्दलीसंघलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[साधर्म्यवैधयं
प्रशस्तपादभाष्यम् कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव । कारणों से उत्पन्न पदार्थों के कार्यत्व और अनित्यत्व ये दो साधर्म्य हैं।
__ न्यायकन्दली कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव । येषां द्रव्यादीनामुत्पत्तिकारणमस्ति तेषां कार्यत्वमनित्यत्वञ्च धर्मो न सर्वेषामित्यर्थः । स्वकारणे समवायः, प्रागसतः सत्तासमवायो वा कार्यात्वमित्येके । तदयुक्तम्, प्रध्वंसे तदभावात् । तस्मात् कारणाधीनः स्वात्मलाभः कार्यत्वमिति लक्षणम्, व्यापकत्वात् । प्राक्प्रध्वंसाभावोपलक्षिता वस्तुनः सत्तैवानित्यत्वमिति केचित् । तदयुक्तम्, अप्रतीतेः । अनित्य इति विनाशीत्येवं लोक: प्रत्येति, न तु सत्ताविशिष्टताम् । उत्पत्तिविनाशयोगित्वमित्यपरः । तदप्यसारम्, प्रागभावे उत्पत्तेरभावात्, तस्याप्यनित्यत्वेन लोके सम्प्रतिपत्तेः । तस्मात् स्वरूपविनाश एवानित्यत्वमिति । यथोक्तम्-"अनित्यत्वं विनाशाख्या क्रियासामान्यमुच्यते" इति।
'कार्यत्वानित्यत्वे कारणवतामेव' अभिप्राय यह है कि कारणों से जिन द्रव्यादि वस्तुओं की उत्पत्ति होती है: कारणत्व और अनित्यत्व उन्हीं पदार्थों के साधर्म्य हैं, सभी पदार्थों के नहीं। कोई कहते हैं कि (प्र.) कारणों में कार्यों का समवाय ही उनका 'कार्यत्व' है या पहिले से अविद्यमान कार्यों में 'सत्ता' (जाति) का समवाय सम्बन्ध ही 'कार्य्यत्व' है। (उ.) किन्तु ये दोनों ही पक्ष अयुक्त हैं, क्योंकि ध्वंसात्मक कार्य में इन दोनों में से एक प्रकार का भी कार्यत्व नहीं है, अतः कार्यत्व लक्षण के सभी लक्ष्यों में रहने के कारण “कारणों से अपने स्वरूप का लाभ हो” कार्यत्व का लक्षण है। कोई कहते हैं कि (प्र०) जिन वस्तुओं का कभी प्रागभाव रहे और कभी जिनका ध्वंस भी हो उनमें रहनेवाली 'सत्ता' ही 'अनित्यत्व' है। (उ.) किन्तु यह असङ्गत है, क्योंकि अनित्यत्व की प्रतीति इस आकार को नहीं होती है। 'अनित्यत्व' शब्द से विनाशशीलत्व की ही प्रतीति होती है, किसी प्रकार की सत्ता की नहीं। (प्र.) कोई कहते हैं कि उत्पत्ति और विनाश दोनों का सम्बन्ध ही 'अनित्यत्व' है। (उ० ) किन्तु यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव में अनित्यत्व की सार्वजनीन अबाधित प्रतीति होती है, किन्तु उसमें उत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं है। अतः वस्तुओं के स्वरूप का नाश ही अनित्यत्व है। जैसा कहा भी है कि विनाश नाम की सामान्य क्रिया ही 'अनित्यत्व' शब्द से कही जाती है । (प्र०) यद्यपि वस्तुओं की वर्तमान यादि को पुण्य नहीं होता, एवं ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध सुरापानादि से शूद्रादि को अधर्म नहीं होता, अतः यह कथन असङ्गत है कि उक्त धर्माधर्मकत्तत्व केवल व्रव्यादि तीन के ही साधर्म्य हैं।
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