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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वञ्चेति । वैशेषिकैः स्वयं व्यवहाराय यः सङ्केतः कृतोऽस्मिन् शास्त्रे 'अर्थशब्दाद् द्रव्यगुणकर्माणि प्रतिपत्तव्यानि' इति, तेन द्रव्यादीनि त्रीणि निरुपपदेनार्थशब्देनोच्यन्ते ।
धर्माधर्मकर्तृत्वञ्चेति । धर्माधर्मोत्पत्तिनिमित्तत्वं त्रयाणाम्, यथा हि भूमिरेकैव दीयमानापह्रियमाणा च धर्माधर्मयोः कारणम् । एकः संयोगो द्वयोः कारणम्, यथा कपिलास्पर्शो नरास्थिस्पर्शश्च । एवं कर्माप्युभयकारणम्, यथा तीर्थगमनं शौण्डिकगृहगमनञ्च, एवमन्यदप्यूह्यम् । धर्माधर्मकर्तृत्वमिति त्वप्रत्ययेन धर्माधर्मजननं प्रति तेषां निजा शक्तिरुच्यते । ननु जातिरपि तयोः कारणम् ? न, तस्याः स्वाश्रयव्यवच्छेदमात्रेण चरितार्थत्वात् ।
स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्वञ्च' अर्थात् वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने सङ्केत किया है कि 'अर्थ' शब्द से द्रव्यादि न समझे जायें। इस सङ्केत के बल से विशेषण से शून्य केवल 'अर्थ' शब्द से द्रव्यादि तीन ही समझे जाते हैं। (इस प्रकार वैशेषिक शास्त्र के सङ्केत सम्बन्ध से 'अर्थ' शब्दवत्ता द्रव्यादि तीन पदार्थों में है), अत: स्वसमयार्थशब्दाभिधेयत्व द्रव्यादि तीन पदार्थों का साधर्म्य है ।
__ 'धर्माधर्मकतत्वञ्च' अर्थात् द्रव्यादि तीनों पदार्थों में धर्म और अधर्म दोनों की कारणता है, एक ही भूमि जब किसी को दी जाती है, तब वह धर्म का कारण होती है, वही भूमि जब किसी से छीनी जाती है, तब अधर्म का कारण होती है-इसी तरह कपिला गो का स्पर्श (गुण) धर्म का एवं मनुष्य की अस्थि का स्पर्श (गुण) अधर्म का कारण है। इसी प्रकार तीर्थगमन क्रिया से धर्म और मद्य बेचनेवाले के गृह में जाने की क्रिया से अधर्म होता है। इसी प्रकार और स्थलों में भी कल्पना करनी चाहिए । 'धर्माधर्मकत्त त्वञ्च' इस वाक्य में प्रयुक्त 'त्व' प्रत्यय से द्रव्यादि तीनों वस्तुओं में धर्म और अधर्म के उत्पादन करने की अपनी शक्ति कही गई है। (प्र०) जाति भी तो उन दोनों का कारण है ? (उ०) जाति धर्म और अधर्म का कारण नहीं है, क्योंकि वह अपने आश्रय को विजातीय वस्तुओं से भिन्न समझाकर ही चरितार्थ हो जाती है, (अर्थात् ) उक्त शब्द से धर्म और अधर्म का साक्षात् कारणत्व ही विवक्षित है, ( उक्त धर्माधर्म ) के तो ब्राह्मणादि व्यक्ति ही कारण हैं। जाति का काम वहाँ इतना ही है कि ब्राह्मणादि से भिन्नजातीय व्यक्तियों से प्रकृत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति का प्रतिषेध करे, अतः कोई अनुपपत्ति नहीं है।
१. प्रश्न का अभिप्राय है कि द्रव्यादि तीनों पदार्थों की तरह जाति भी धर्म और अधर्म का कारण है, क्योंकि ब्राह्मणों के लिए विहित क्रिया के अनुष्ठान से क्षत्रि
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