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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली वभासोऽस्तीति कूतोऽत्र सामान्यकल्पनेति चेत् ? कि महीधरादिषु निखिलरूपानुगमो नास्ति ? उत मात्रयाऽपि न विद्यते ? यदि निखिलरूपानुगमाभावात् तेषु सामान्थप्रत्याख्यानम् ? तर्हि गोत्वमपि प्रत्याख्येयम्, तयोः शाबलेयबाहलेययोः सर्वथा साधाभावात् । अथ मात्रयाऽपि स्वरूपानुगमो नास्ति ? तदसिद्धम्, सर्वेषामपि तेषामभावविलक्षणेन रूपेण तुल्यताप्रतिभासनात् । इयांस्तु विशेष:-गोपिण्डेषु झटिति तज्जातीयताबुद्धिः, भूयोऽवयवसामान्यानुगमात् । महीधरादिषु तु विलम्बिनी, स्तोकावयवसामान्यानुगमेन जातेरनुद्भूतत्वात्, यथा मणिकदर्शनाच्छरावे मृज्जातिबुद्धिः।।
एतेनार्थक्रियाकारित्वमपि सत्त्वं प्रत्युक्तम्, असतोऽर्थक्रियाया अभावात्, अर्थक्रियायाञ्च सत्यां तस्य सत्त्वात्, अर्थक्रियायाश्चार्थक्रियापेक्षया सत्त्वेनानवस्थाने सर्वस्यासत्त्वप्रसङ्गाच्च ।
(उ०) (इस आक्षेप के समाधानार्थ यह पूछना है कि) (१) क्या पर्वतादि के सभी धर्म एक दूसरे में नहीं हैं ? (२) या पर्वतादि के कुछ धर्म एक दूसरे में नहीं है ? अगर पहिला पक्ष मानें तो फिर गायों में भी “ये गायें है" इस प्रकार का अनुवृत्तिप्रत्यय नहीं होगा, क्योंकि प्रत्येक गाय में रहनेवाले शाबलेयत्वादि धर्म दूसरी गायों में नहीं हैं । अगर दूसरा पक्ष मानें तो हम कहेंगे कि यह असत्य है, क्योंकि अन्ततः भावभिन्नत्वरूप धर्म तो पर्वत और सरसों दोनों में अवश्य ही प्रतीत होता है । इतना अन्तर अवश्य है कि एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर सादृश्य की बुद्धि शीघ्र उत्पन्न होती है। क्योंकि दोनों गायों के अवयवों में बहुत से सादृश्य हैं। किन्तु पर्वत और सर्षप के अवयवों में उतने सादृश्य नहीं हैं। अतः पर्वत को देखने के बाद सर्षप में सादृश्य की बुद्धि देर से उत्पन्न होती है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि पर्वत और सर्षप दोनों में रहनेवाली जाति परिस्फुट नहीं है । जैसे हड़िया को देखने के बाद पुरवे में मिट्टी में रहनेवाली पृथिवीत्व जाति की उपलब्धि होती है।
कोई (बौद्ध) कहते हैं कि 'अर्थक्रियाकारित्व' ही 'सत्त्व' है। किन्तु 'परस्पराश्रयत्व' दोष से ग्रसित होने के कारण यह पक्ष भी असङ्गत ही है। शशविषाणादि असत् पदार्थों में सत्त्व इसलिए नहीं है कि उनमें अर्थक्रियाकारित्व नहीं है । और उनमें अर्थक्रियाकारित्व इसलिए नहीं है कि वे 'सत्' नहीं हैं। दूसरी बात है कि घटादि पदार्थों की सत्ता जिस अर्थक्रिया के अधीन है, उस अर्थक्रिया के सत्त्व की प्रयोजिका कोई दूसरी अर्थक्रिया नहीं है । अतः (घटादि वस्तुओं के सत्त्व की प्रयोजिका) अर्थक्रिया के असत् होने के कारण घटादि वस्तुओं की सत्ता ही उठ जाएगी।
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