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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देश
न्यायकन्दली
___ अथ मतं न ब्रूमः प्रमाणसम्बन्धः सत्तेति, किन्तु प्रमाणसम्बन्धयोग्य वस्तुस्वरूपमेव सत्ता । योऽपि सत्तासामान्यमिच्छति, तेनापि पदार्थस्वरूप. मभ्युपेयम्, नि:स्वभावे शशविषाणादौ सत्ताया असमवायात् । एवं चेत् तदेवास्तु, किं सत्तयेति ।
अत्रोच्यते, प्रत्येक पदार्थस्वरूपाणि भिन्नानि, कथं तेष्वेकाकारप्रतीति : ? एकशब्दप्रवृत्तिश्च ? अनन्तेषु सम्बन्धग्रहणाभावात् । अथ तेष्वेकं निमित्तमस्ति ? सिद्धं नः समीहितम्। यथा दृष्टैकगोपिण्डस्य पिण्डान्तरे पूर्वरूपानुकारिणी बुद्धिरुदेति, नैवं महीधरमुपलभ्य सर्षपमुपलभमानस्य पूर्वाकाराप्रमाणगम्यत्वरूप माना है, अत: ग्राहकीभूत प्रमाणों में सत्त्वसम्पादन के लिए दसरे प्रमाण का अलवम्बन करना पड़ेगा। इस पक्ष में अनवस्था दोष भी अनिवार्य होगा।
(प्र०) प्रमाणों के सम्बन्ध को ही हम सत्ता नहीं कहते, किन्तु प्रमाणसम्बन्ध के योग्य वस्तु के 'स्वरूप' अर्थात् असाधारण धर्म को ही उस वस्तु की 'सत्ता' कहते हैं। जो कोई 'सत्ता' नाम की अतिरिक्त जाति मानने की इच्छा रखते हैं, वे भी वस्तुओं के असाधारणस्वभावरूप सत्त्व से शून्य खरगोश के सींग प्रभृति वस्तुओं में सत्ता जाति का समवाय नहीं मानते । अतः उस असाधारण धर्म को छोड़कर सत्ता नाम की कोई जाति ही नहीं है।
(उ०) यह कहना भी कुछ ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के परस्पर भिन्न होते हुए भी तीनो में जो 'ये सत् हैं' इस एक आकार की प्रतीति होती है, वह अनुपपन्न हो जाएगी, चूंकि द्रव्यादि तीनों व्यक्तियों के 'स्वरूप' अर्थात् असाधारण धर्म भिन्न भिन्न हैं। यह सत्त्व अपने अपने आश्रय को छोड़कर किसी दूसरे में नहीं रह सकते। फिर द्रव्यादि तीनों में रहनेवाली किसी एक वस्तु से उक्त एक आकार की प्रतीति होगी, एवं द्रव्यादि तीनों को समझाने के लिए जिस एक ही 'सत्' शब्द की प्रवृत्ति होती है, वह भी अनुपपन्न हो जाएगी, क्योंकि व्यक्ति अनन्त हैं, उन सभी व्यक्तियों में शक्ति का ग्रहण ही असम्भव है। अगर उक्त अनुवृत्तिप्रत्यय के लिए अथवा शब्द के उक्त प्रयोग के लिए द्रव्यादि तीनों में रहनेवाले किसी एक कारण की कल्पना की जाय तो फिर इससे हमारा ही अभीष्ट सिद्ध होगा (फलतः सत्ता जाति माननी ही पड़ेगी) । (प्र०) जिस प्रकार एक गाय को देखने के बाद दूसरी गाय को देखने पर इस दूसरी गाय में भी 'यह गाय है' इस प्रकार की बुद्धि होती है, अतः सभी गायों में रहनेवाली एक गोत्व जाति की कल्पना करते हैं, उसी प्रकार से पर्वत को देखने के बाद सरसों को देखने पर दोनों में किसी एक आकार की बुद्धि नहीं होती, अतः इन दोनों में से किसी एक का धर्म दूसरे में नहीं है।
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