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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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३१
स्वाश्रयं व्यावर्त्तयितुं शक्नोति । तेषामपि स्वरूप सत्तासम्बुद्धिसंवेद्यत्वात् । वस्त्वपेक्षया चानुवृत्तिहेतुत्वं विवक्षितम् तेनाभावाद्वयावृत्तिहेतुत्वेऽपि न दोषः ।
यत्प्रमाणेन प्रतीयते तत्रास्ति व्यवहारो लोकानां विपर्य्यये तु नास्तीति । तेन प्रमाणगम्यैव सत्तेति केचित् । तदयुक्तम्, प्रमाणोत्पत्तेः प्राग् वस्तुनोऽसत्त्वप्रसङ्गादसतश्च खरविषाणस्येव ग्राह्यत्वाभावादन्योन्यसंश्रयापत्तेश्च । सतः प्रमाणस्य ग्राहकत्वे सत्तायाः प्रमाणग्राह्यतालक्षणत्वे च ग्राहकस्य प्रमाणस्यापि ग्राहकान्तरानुसरणेनानवस्थापाताच्च ।
वह कारण नहीं हो सकती, (क्योंकि सत्ता के सम्बन्ध से जिस प्रकार द्रव्य, गुण और कमं में 'ये सत् हैं' यह प्रतीति होती है, उसी प्रकार सामान्यादि भावपदार्थों से 'भावत्व' रूप सता के बल से 'ये सत् हैं' इस प्रकार की भी प्रतीति होती है । अतः द्रव्यादिधम्मिक सत्त्व की प्रतीति में और सामान्यादिधम्मिक सत्त्व की प्रतीति में आकारगत कोई भेद नहीं है ) । (प्र०) अभावों में किसी भी प्रकार की 'सत्त्व' बुद्धि (सत्ताजातिमूलक, या भावत्वमूलक) नहीं होती है, अतः सत्ता जाति और किसी को न सही अपने आश्रयीभूत द्रव्यादि में अभावभिन्नत्वरूप व्यावृत्ति के बोध को तो उत्पन्न कर ही सकती है । अतः सत्ता जाति भी द्रव्यस्वादि जातियों की तरह सामान्य और विशेष दोनों हो सकती हैं । ( उ० ) नहीं, उक्त 'अनुवृत्तिप्रत्यय' शब्द का अर्थ है अनेक विभिन्न भावपदार्थों में एकाकारता की प्रतीति, एवं 'व्यावृत्तिबुद्धि' शब्द का अर्थ है एक या अनेक भावों में दूसरे भावपदार्थ से भिन्नत्व की बुद्धि । इसी व्यावृत्तिबुद्धि का कारण है 'विशेष' । विशेष का यह लक्षण सत्ता जाति में नहीं है । अतः द्रव्यादि में अभावभिन्नत्व बुद्धि की प्रयोजक होने पर भी सत्ता सामान्य ही है, 'विशेष' नहीं ।
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( प्र०) कोई कहते हैं कि वस्तुतः 'अस्तित्व' ही 'सत्ता' है । प्रमाण के द्वारा ज्ञात अर्थ में ही अस्तित्व की प्रतीति होती है । जिस वस्तु की प्रतीति प्रमाण के द्वारा नहीं होती, उसमें अस्तित्व की बुद्धि भी नहीं होती है । अतः 'प्रमाणगम्यत्व' ( अर्थात् प्रमाण से ज्ञात होना) ही 'सत्ता' है । इस नाम की कोई अतिरिक्त जाति नहीं है । (उ० ) यह उक्ति असङ्गत है, क्योंकि इससे तो प्रमाण की प्रवृत्ति से पहले गदहे के सींग की तरह वस्तुओं को असत्ता माननी पड़ेगी । दूसरी बात यह है कि गदहे की सींग प्रभृति असत् वस्तुओं में प्रमाणों की प्रवृत्ति नहीं होती है । 'सत्' घटादि वस्तुओं में ही प्रमाणों की प्रवृत्ति होती है । ( इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ) वस्तु 'सत्' तभी होगी, जब उसमें प्रमाण की प्रवृत्ति होगी । एवं. प्रमाणों की प्रवृत्ति सद्विषयों में ही होगी । अतः सत्त्व को प्रमाणगम्यत्वमूलक और प्रमाणों की प्रवृत्ति को सत्त्वमूलक मानना पड़ेगा, जिससे कि परस्पराश्रयत्व होगा। तीसरी बात है कि 'सत्' प्रमाण ही वस्तुओं का ज्ञापक है, 'असत्' प्रमाण नहीं । एवं 'सत्त्व' को आपने