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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
२७
प्रशस्तपादभाष्यम् चशब्दसमुच्चिताश्च गुरुत्वद्रवत्वस्नेहसंस्कारादृष्टशब्दाः सप्तवेत्येवं चतुर्विंशतिगुणाः ।
___ एवं ( १ ) गुरुत्व, ( २) द्रवत्व, (३) स्नेह, (४) संस्कार, अदृष्ट (अर्थात् (५) धर्म, (६) अधर्म) और (७) शब्द, ये सात गुण सूत्रस्थ 'च' शब्द से संग्राह्य हैं। इस प्रकार मिलाकर गुण चौबीस प्रकार के हैं।
न्यायकन्दली 'च' शब्देनात्रानुक्ता गुणत्वेन लोके प्रसिद्धा गुरुत्वादयः सप्त समुच्चिताः । एवं चतुर्विशतिरेव गुणाः । ये तु शौय्यौदार्यकारुण्यदाक्षिण्यौग्र्यादयः, तेऽत्रैवान्तभवन्ति । शौर्यो बलवतोऽपि परस्य पराजयाय प्रत्युत्साहः। स च प्रयत्नविशेष एव। सततं सन्मार्गवर्तिनी बुद्धिरौदार्यम् । परदुःखप्रहाणेच्छा कारुण्यम् । दुःखे, इच्छाद्वेषौ, प्रयत्नाश्च गुणा:” (१२११६) इस सूत्र की रचना के द्वारा रूपादि सत्रह गुण ही 'रूपादि' शब्दों के द्वारा स्पष्ट रूप से कहे गये हैं । जो गुण इस सूत्र के द्वारा साक्षात् नहीं कहे गये हैं और लोक से गुणत्व के नाम से व्यवहृत हैं, वे सूत्र के 'च' शब्द से सूचित किये गये हैं । इस प्रकार कण्ठोक्त १७ और 'च' शब्द से समुच्चित सात, दोनों को मिलाकर गुण चौबीस ही हैं । शौर्य, औदार्य कारुण्य, दाक्षिण्य, औग्र्य प्रभृति जितने भी गुणशब्द से लोक में व्यवहृत हैं, वे सभी इन्हीं गुणों में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अपने से अधिक बलशाली शत्रु को पराजित करने के उत्साह को 'शौर्य' कहते हैं, जो वस्तुतः प्रयत्न विशेष ही है । बराबर सन्मार्ग में रहनेवाली 'बुद्धि' हो औदार्य कही जाती है। दूसरों के दुःख को नाश जाते हैं। आत्मत्वरूप से जीव और ईश्वर को एक द्रव्य नहीं मान सकते, क्योंकि जीव में चौदह गुण हैं एवं ईश्वर में केवल छः । तस्मात् द्रव्यविभागवाक्य का 'आत्मा' शब्द जीव या ईश्वर किसी एक का ही बोधक हो सकता है। जिससे कि उक्त अवधारण का प्रयोग असङ्गत हो जाता है । इसी आक्षेप का समाधान "ईश्वरेऽपि" इत्यादि सन्दर्भ से देते हैं । समाधान ग्रन्थ का अभिप्राय है कि चौदह गुण जीव के लक्षण नहीं हैं, क्योंकि इतने गुण मुक्त आत्माओं में नहीं रहते । आत्मा के सभी विशेष गुणों का अत्यन्त विनाश हो मुक्ति है । तस्मात् मुक्त जीवों में संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व ये सात सामान्य गुण ही रहेंगे, क्योंकि मुक्ति के समय बुद्धि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और भावनाख्य संस्कार जीव के ये सात विशेष गुण नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रव्यविभागवाक्य का 'आत्मा' शब्द चौदह गुणों से युक्त केवल जीव का ही बोधक नहीं है। किन्तु आत्मत्वजाति से युक्त द्रव्य का बोधक है । यह जाति बुद्धि से युक्त जीव और ईश्वर दोनों में है, क्योंकि आत्मत्वरूप से दोनों अभिन्न हैं । अतः "नवैव द्रव्याणि" यह अवधारण ठीक है।
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