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ग्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [उद्देश
प्रशस्तपादभाष्यम् उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणगमनानि पञ्चैव कर्माणि । गमनग्रहणाद् भ्रमणरेचनस्यन्दनो ज्वलनतिर्यपतननमनोन्नमनादयो गमनविशेषा न जात्यन्तराणि ।
(१) उत्क्षेपण, ( २ ) अपक्षेपण ( ३ ) आकुञ्चन, ( ४ ) प्रसारण और (५ ) गमन ये पाँच ही कर्म हैं । गमन पद से यह कहना है कि भ्रमण, रेचन, स्यन्दन, ऊर्ध्वज्वलन, तिर्यक्रपतन, नमन और उन्नमन प्रभृति कर्म भी गमनविशेष ही हैं, दूसरी जाति के नहीं।
न्यायकन्दली तत्त्वाभिनिवेशिनी बुद्धिर्दाक्षिण्यम् । औग्र्यमात्मन्युत्कर्षप्रत्यय इत्येवमादिः । अदृष्टशब्देन धर्माधर्मयोरुपसङ्ग्रहः । संस्कार इति । स च वेगस्य भावनायाः स्थितिस्थापकस्य चाभिधानम् । नन्वेवं ताधिक्यम् ? न, संस्कारत्वजात्यपेक्षया वेगभावनास्थितिस्थापकानामेकत्वात् । एवं तर्हि न चतुर्विंशतित्वम् ? अदष्टत्वजात्यपेक्षया धर्माधर्मयोरेकत्वात् । न, अदृष्टत्वजात्यभावात् । निर्गुणेष्वपि गुणेष्वसाधारणधर्मयोगित्वेनोपचाराच्चतुर्विशतिरिति व्यवहारः ।
कर्माणि विभजते-उत्क्षेपणोति । कियन्ति तानि ? तत्राह-पञ्चैवेति । ननु भ्रमणादयोऽपि सन्ति ? कथं पञ्चैवेत्यवधारणमत आह-गमनग्रहणादिति। करने की 'इच्छा' ही कारुण्य है । यथार्थ वस्तु को ग्रहण करनेवाली 'बुद्धि' ही दाक्षिण्य है । अपने में उत्कर्ष की बुद्धि ही औग्र्य है । 'अदृष्ट' शब्द से धर्म और अधर्म-दोनों अभिप्रेत हैं। 'संस्कार' शब्द से वेग भावना और स्थितिस्थापक तीनों संग्राह्य हैं । (प्र०) इस प्रकार गुण तो चौबीस से अधिक हो जायेंगे ? (उ.) नहीं, संस्कारत्व जाति है और इस रूप से वेगादि तीनों संस्कार एक ही हैं । (प्र०) इस प्रकार भी गुण चौबीस ही नहीं होंगे, क्योंकि (वेगादि की तरह) अदृष्टत्वजाति रूप से धर्म और अधर्म ये दोनों भी एक हो जाएंगे ? (उ०) नहीं, क्योंकि अदृष्टत्व नाम की कोई जाति नहीं है । गुणों में गुण के न रहने पर भी 'गुण चौबीस हैं' यह गौण व्यवहार होता है। जैसे कि पृथिवीत्वादि नौ धर्मों के सम्बन्ध से "द्रव्य पृथिव्यादि भेद से नो हैं" यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार रूपादिगत असाधारण धर्मस्वरूप रूपत्वादि चौबीस धर्मों के सम्बन्ध से रूपादि गुणों में चौबीस संख्या का गोण व्यवहार होता है । (इससे रूपादि गुणों में संख्या गुण की सत्ता की सम्भावना नहीं है ।)
"उत्क्षेपण" इत्यादि से कर्म पदार्थ का विभाग किया गया है। वे कितने हैं ! इस प्रश्न का उत्तर है 'पञ्चव', अर्थात् कर्म पाँच ही हैं । (प्र०) भ्रमणादि और
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