________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम् न्यायकन्वली
मभ्यस्यतः प्रकृष्टविनिवर्तकधर्मोपचये सति परिपक्वात्मज्ञानस्यात्यन्तिकशरीरवियोगस्य भावात् । दृष्टो विषयिणामहिकण्टकादीनां परित्यागो विशेषदोषदर्शनपूर्वकाभिसन्धिकृतनिवर्त्तकात्मविशेषगुणात् प्रयत्नात् । तेन शरीरादीनामात्यन्तिकः परित्यागो विषयदोषदर्शनपूर्वकाभिसन्धिकृतनिवर्तकात्मविशेषगुणनिमित्तो विज्ञात इति मोक्षाधिकारे वक्ष्यामः।।
धर्मोऽपि तावन्न निःश्रेयसं करोति यावदीश्वरेच्छया नानुगद्यते। तेनेदमुक्तम्-ईश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्मादेवेति । चोद्यन्ते प्रेर्यन्ते स्वकार्येषु प्रवर्त्यन्तेऽनया भावा इति चोदना ईश्वरचोदना ईश्वरेच्छाविशेषः। अभिव्यक्तिः कार्यारम्भं प्रत्याभिमुख्यम् । ईश्वरचोदनयाभिव्यक्तादीश्वरचोदनाभिव्यक्ताद् ईश्वरेच्छाविशेषेण कार्यारम्भाभिमुखीकृताद्धादेव नि:श्रेयसं भवतीति वाक्ययोजना। तच्चेति चकारो द्रव्यादिसाधर्म्यज्ञानेन सह धर्मस्य निःश्रेयसहेतुत्वं समुच्चिनोति ।
निष्काम कम्मों का अनुष्ठान करता हुआ आत्म-ज्ञान का अभ्यास करता है। इन आचरणों से निवृत्तिजनक धर्म की वृद्धि होने पर जब आत्मज्ञान परिपक्व हो जाता है, तब उससे ( आत्मा का ) शरीर के साथ अत्यन्त-वियोग ( मोक्ष ) की उत्पत्ति होती है। यह देखा जाता है कि सर्प और कण्टकादि पदार्थों में पहिले इस प्रकार के दोष का ज्ञान होता है कि ये सभी दुःखजनक हैं। फिर उन्हें त्यागने की इच्छा होती है। इस इच्छा से निवृत्तिजनक ( निवर्त्तक ) प्रयत्न की उत्पत्ति होती है। आत्मा के विशेषगुण इस प्रयत्न से जीव उन दुष्ट ( सर्पादि ) पदार्थों को छोड़ देता है । यही बात हम मोक्ष निरूपण में कहेंगे ।
धर्म भी तब तक अकेला मोक्ष का सम्पादन नहीं कर सकता, जबतक उसे ईश्वर की इच्छा की सहायता न मिले। इसीलिए प्रशस्तपाद ने "तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद्धर्मादेव” यह वाक्य लिखा है । "चोद्यन्ते स्वकार्येषु प्रय॑न्तेऽनया भावाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस 'इच्छा' से ( कारणरूप वस्तु अपने कार्यो में उसके उत्पादन के लिए प्रेरणा प्राप्त करे) वही 'इच्छा' प्रकृत 'चोदना' शब्द का अर्थ है। 'ईश्वरस्य चोदनां' इस विग्रह के अनुसार 'ईश्वर की इच्छा' ही 'ईश्वरचोदना' शब्द का अर्थ है । प्रकृत 'अभिव्यक्ति' शब्द से कारणों की कार्य करने की उन्मुखता इष्ट है । "ईश्वरचोदनाभिव्यक्तात्" यह पञ्चम्यन्त पद "ईश्वरचोदनयाऽभिव्यक्तात्" इस तृतीया समास से बना है । उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अनुसार 'तच्च' इत्यादि वाक्य का फलित अर्थ यह है कि ईश्वर के इच्छाविशेष से कार्य के प्रति उन्मुख धर्म से ही 'मुक्ति' होती है । 'तच्च' इस वाक्य में प्रयुक्त 'च' शब्द इस समुच्चय का बोधक है कि पदार्थों के साधादिरूप तत्त्वविषयक ज्ञान के साथ मिलकर ही धर्म में मोक्ष की साधनता है ।
For Private And Personal