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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली परमाणवोऽदृष्टव्यापारवैगुण्याद्रूपवत्कार्यं नारभन्त इति किं न कल्प्येत । किं वा न कल्पितमेतदेकजातीयादेव परमाणोरदृष्टोपग्रहाच्चतुर्धा कार्याणि जायन्त इति । कायकसमधिगम्या: परमाणवो यथाकार्यमुन्नीयन्ते, न तद्विलक्षणाः, प्रमाणाभावादिति चेत? एवं तहि तामसाः परमाणवोऽप्यस्पर्शवन्तः कथं तमोद्रव्यमारभेरन? अस्पर्शवत्त्वस्य कार्य्यद्रव्यानारम्भकत्वेनाव्यभिचारोपलम्भात् । कार्यदर्शनात तदनुगुणं कारणं कल्प्यते, न तु कारणवैगुण्येन दृष्टकार्यविपर्यासो युज्यत इति चेत्, न वयमन्धकारस्य प्रथिनः, किन्त्वारम्भकानुपपत्ते!लिममात्रप्रतीतेश्च द्रव्यमिदं न भवतीति ब्रूमः । तहि भासामभाव एवायं प्रतीयेत? न, तस्य नीलाकारेण (किन्तु स्पर्शशून्य स्थूल अन्धकार को ही उत्पन्न करते हैं)। (उ०) अगर ऐसी बात है तो फिर "वायु के परमाणुओं में रूप है, किन्तु अनुकूल अदृष्ट के न रहने से स्थूल वायु में रूप की उत्पत्ति नहीं होती है" ऐसी कल्पना भी क्यों नहीं कर लेते ? अथवा यही कल्पना क्यों नहीं करते कि किसी एकजातीय परमाणुओं से ही पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये तारों उत्पन्न होते हैं और अदृष्ट की विचित्रता से इनमें परस्पर वैचित्र्य है । (प्र०) परमाणु प्रत्यक्षसिद्ध वस्तु नहीं हैं, किन्तु पृथिव्यादि स्थूल कार्यों से ही उनका अनुमान होता है । स्थूल पृथिवी-जलादि द्रव्य परस्पर भिन्नरूपों से प्रत्यक्ष होते हैं, अतः उनके मूलकारण परमाणुओं को भी परस्पर विलक्षण मानना पड़ेगा। क्योंकि कार्य से समानजातीय कारण का अनुमान होता है। (उ०) फिर स्पर्शशून्य रूप से प्रत्यक्ष होनेवाले अन्धकार के परमाणुओं में स्पर्श की कल्पना कैसी ? तस्मात् (स्पर्शशून्य) अन्धकार का परमाणु स्थूल अन्धकार को उत्पन्न कर ही नहीं सकता । क्योंकि यह अव्यभिचरित नियम है कि स्पर्शविशिष्ट द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक होता है। (प्र.) कार्य जिस रूप में देखे जाते हैं उनके अनुरूप कारणों की कल्पना की जाता है । यह तो नहीं होता कि एक विशेष प्रकार के कारण की कल्पना कर ली जाए और उसके अनुरोध से कायों को प्रत्यक्ष सिद्ध अपने रूपों से भिन्न रूपों से माना ए'। (उ०) हम अन्धकार के विरोधी नहीं हैं। (अर्थात् प्रत्यक्षसिद्ध अन्धकार की सत्ता तो हम मानते हैं) किन्तु मेरा कहना है कि दृष्ट अन्धकार में स्पर्श की उपलब्धि नहीं होती । एवं कार्य
और कारण दोनों को समान गुण का ही होना उचित है। अतः अन्धकार के मूलकारण परमाणु में स्पर्श नहीं है । 'एवं स्पर्शयुक्त द्रव्य ही द्रव्य का उत्पादक है' इस नियम में कहीं ब्यभिचार भी नहीं है । तस्मात् प्रत्यक्ष से सिद्ध अन्धकार 'द्रव्य' नहीं है। किन्तु अन्धकार को द्रव्य मानना सम्भव न होने पर भी उसको केवल तेज का अभाव ही मान लें यह पक्ष भी ठीक नहीं है। क्योंकि नील रूप से ही अन्ध
१. अभिप्राय यह है कि अन्धकार के प्रत्यक्ष में नीलरूप का भान होता है, स्पर्श का नहीं। अतः यह मानना पड़ेगा कि दृष्ट अन्धकार के मूलकारण
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