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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[उद्देश
न्यायकन्दली
प्रतिभासायोगात्, मध्यन्दिनेऽपि दूरगगना भोगव्यापिनो नीलिम्नश्च प्रतीतेकिश्व गृह्यमाणे प्रतियोगिनि संयुक्तविशेषणतया तदन्यप्रतिषेधमुखेनाभावो गृह्यते, न स्वतन्त्रः । तमसि च गृह्यमाणे नान्यस्य ग्रहणमस्ति । न च प्रतिषेधमुख: प्रत्ययः । तस्मान्नाभावोऽयम् । न चालोकादर्शनमात्र मेवैतत्, बहिर्मुखतया तम इति, छायेति च कृष्णाकार प्रतिभासनात् । तस्माद्रूपविशेषोऽयमत्यन्तं तेजोभावे सति सर्व्वतः समारोपितस्तम इति प्रतीयते । दिवा चोर्ध्वं नयनगोलकस्य नीलिमावभास इति वक्ष्यामः । यदा तु नियतदेशाधिकरणो भासामभावस्तदा तद्देशसमारोपिते नीलिम्नि छायेत्यवगमः । अत एव दीर्घा, ह्रस्वा, महती, अल्पीयसी
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कार का प्रत्यक्ष होता है । (अभाव में किसी भी रूप की मुख्य प्रतीति नहीं हो सकती ) । एवं दिन में दोपहर को ( सूर्य का पूर्ण प्रकाश रहते हुए भी) गगन मण्डलव्यापी नीलिमा की प्रतीति होती है । धर्म्मो की प्रतीति होने पर ( उस समय या किसी भी समय न रहनेवाले) उससे भिन्न वस्तु को 'स्वसंयुक्तविशेषणता' नाम के सम्बन्ध से प्रतिषेधरूप से प्रतीति ही अभाव-प्रतीति है । किन्तु अन्धकार - ज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रतियोगिरूप से किसी अन्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता । तस्मात् अन्धकार तेज का अभाव ही है । (प्र०) 'तेज' का न देखना ही अन्धकार की प्रतीति है ? ( उ० ) नहीं, बाहर की तरफ "यह अन्धकार है, यह छाया है" इत्यादि नीलाकार की प्रतीतियाँ होती हैं, ( तस्मात् तेज की अप्रतीति ही 'तम' नहीं है । ), अतः ( अन्धकार नाम की ) यह वस्तु 'रूप' विशेष हैं, जो तेज का अत्यन्ताभाव रहने पर सभी ओर 'समारोपित' होकर 'तम' कहलाती है । दिन में भी ऊपर की तरफ ( आकाशमण्डल में) जो नीलिमा की प्रतीति होती है, वह नयनगोलक की ही नीलिमा है, यह हम आगे कहेंगे । जब जिस नियत देशरूप अधिकरण में तेज का अत्यन्ताभाव रहता है, उस देश में आरोपित नीलरूपाभिन्नतम 'छाया' कहलाती है । अत एव "यह छाया बड़ी है या छोटी है, यहाँ अधिक छाया है वहाँ कम" इत्यादि प्रतीतियाँ होती हैं। क्योंकि उन देशों में आरोपित नीलिमा की प्रतीति ही
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परमाणुओं में रूप है, स्पर्श नहीं है । पृथिव्यादि द्रव्यों में रूप और स्पर्श को नियमित रूप के साथ देखना, या स्पर्शयुक्त द्रव्य ही द्रव्य को उत्पन्न करते हैं, यह नियम स्पर्श से शून्य अन्धकार के परमाणुओं में द्रव्यारम्भकत्व का बाधक नहीं हो सकता ।
१. अभिप्राय यह है कि चक्षु के संयोग से जब भूतल का ज्ञान होता है और घट नहीं दिखाई देता, तभी भूतल में "यहाँ घट नहीं है" इस आकार की प्रतीति होती है । फलतः निषिद्ध रूप से घट की यह प्रतोति ही 'घटाभाव' प्रतीति है । उससे भिन्न स्वतन्त्र घटाभाव की कोई प्रतीति नहीं है । प्रत्यक्ष इन्द्रियसम्बन्धमूलक होता है । प्रकृत में वह सम्बन्ध 'स्वसंयुक्त विशेषणता' नाम का है । 'स्व' शब्द से चक्षु, तत्संयुक्त मूतल, वहाँ विशेषण है- निषेधविशिष्ट घट ।